गुरुवार, फ़रवरी 25, 2010

दलितों के लाल हैं लालू

जिन्हें लालू यादव का भविष्य अंधेरे में नजर आ रहा है, जिन्हें लग रहा है कि लालू सिर्फ चार लोकसभा सीटे जीतने के बाद किसी काम के नहीं रहे और उन्हें चाहे जब लतियाया जा सकता है उन्हें याद दिलाना पड़ेगा कि एक लोकसभा में भाजपा की सिर्फ दो सीटे थी, अगली लोकसभा में ये अस्सी से ज्यादा हो गई और इसके बाद अनवरत राजनैतिक अस्थिरता के खत्म होते ही भाजपा एनडीए के अवतार में सत्ता में आ गई। लालू यादव को सबसे पहले देखा गया था दिल्ली के हरियाणा भवन में उस समय के सबसे ताकतवर नेता ताऊ देवी लाल का इंतजार करते। जमाना जनता दल का था और कांग्रेस बुरी तरह पिट चुकी थी इसलिए ताऊ के पास वक्त नहीं था। बहरहाल लालू अंदर पहुंचे। अंदर क्या हुआ यह पता नहीं लेकिन कुछ ही घंटों में मीडिया और राजनैतिक गलियारों में खबर फैल गई कि लालू बिहार के अगले मुख्यमंत्री हो सकते हैं। तब लालू एक बार सांसद बने थे और एक बार विधायक। विधानसभा में यह उनका शायद दूसरा कार्यकाल था। भले ही राजनीति में पाखंड के प्रतीक दिवंगत विश्वनाथ प्रताप सिंह और देवी लाल एक कहे जाते थे मगर दोनों एक दूसरे को पटकने के लिए तैयार थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बिहार के दलित नेता राम सुंदर दास को वचन दे दिया था कि उन्हें ही बिहार का अगला मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। लालू यादव को तो कोई गंभीरता से ले ही नहीं रहा था। लेकिन अचानक आंकडे बदले और लालू यादव का नाम गंभीरता से लिया जाने लगा। देवी लाल अड़ गए थे। लालू यादव ने मुख्यमंत्री पद की शपथ भी ले ली और पहले पहल जो टिप्पणियां आई उनके अनुसार किसी ने लालू यादव को एक या डेढ़ साल से ज्यादा का मुख्यमंत्री नहीं माना था। लेकिन वे खुद 15 साल तक लगातार राज करते रहे और जब चारा घोटाले में उनके खिलाफ चार्ज शीट हो गई तो उतने ही अधिकार सहित उन्होने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को रसोई से निकाल कर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया। लालू यादव राजनीति की परिभाषाओं में बेइमान कहे जाते हैं। राजनीति में जैसे कि सब होते हैं, वैसे ही लालू यादव अवसरवादी भी है। कांग्रेस के खिलाफ जय प्रकाश आंदोलन में शामिल रहे लालू कांग्रेस के साथ भी रहे, यूपीए सरकार में रेल मंत्री भी बने और एक दो नहीं बल्कि पूरे छह रेल बजट पेश किए। जो तबका घर में डीटीएच से टीवी देखता है और जिसे राजनीति चुटकुला लगती है उनके लिए भी लालू कभी गंभीर पात्र नहीं रहे। जिन्हें अटपटा लगे तो लगता रहे मगर लालू यादव से ज्यादा गंभीर राजनीति कम लोग कर रहे हैं। अपनी विदूषक वाली छवि उन्होंने जानबूझ कर बना रखी है। जैसे उत्तर प्रदेश में एक जमाने में स्वर्गीय बीर बहादूर सिंह थे जो अंग्रेजी न जानते हुए भी टूटी फूटी अंग्रेजी बोलते थे, वैसे ही लालू ने समझ लिया है कि वे जैसे है, उन्हें वोट देने वालों ने उन्हें वैसा ही मंजूर किया है। मध्यम वर्ग जो लालू को आज भी जोकर मानता है, खुद कभी वोट डालने जाता ही नहीं। इस वर्ग के लिए लालू मनोरंजन की वस्तु हैं और लालू के लिए यह वर्ग अस्तित्व में ही नहीं है। लालू यादव जानते हैं कि लोग उन्हें क्यों देखना और क्यों सुनना चाहते हैं। इसीलिए वे आज भी भैस के साथ फोटो खिंचवाते हैं, जहाज को उडऩ खटोला कहते हैं, कुलीन मानी जाने वाली जातियों को भूरा बाल कहते हैं जिसे शेव कर के हटाना जरूरी है और जब जरूरी होता है तो हैलीकॉप्टर से ले कर जहाज किराए पर ले कर घूमते हैं और हैलीकॉप्टर में बैठ कर सत्तू खाते हुए फोटो खिचवाते हैं। लालू यादव आज की राजनीति में करिश्में वाले दुलर्भ नेताओं में से एक हैं। वे अगर बेइमानी भी करते हैं तो पूरी ईमानदारी के साथ। पत्नी को मुख्यमंत्री बना दिया तो लोगों ने बहुत मजाक बनाया। लेकिन न लालू पर असर पड़ा और न लालू के मतदाता पर। समिक्षकों की राय तो यह है कि पिछले लोकसभा चुनाव में और उसके पहले विधानसभा चुनाव में वे कांग्रेस से तालमेल नहीं करते तो ज्यादा सफल होते। लालू यादव बड़े से बड़े नेता को संवाद का सुख और महत्व समझा सकते हैं। मतदाताओं के साथ और मीडिया के साथ भी उनका रिश्ता अद्भुत है और दलित वर्ग को अपने लाभ के लिए ही सही कांशीराम के अलावा किसी ने भारत के संविधान की मान्यता में प्रतिष्ठित किया है तो मुझे लालू यादव के अलावा कोई नजर नहीं आता। अब तो यहां तक कहा जाता हैं कि लालू ने संविधान को वास्तविक विश्वसनीयता दिलायी। आम आदमी को संविधान के मुख्य अर्थों से जोड़ा। राम मनोहर लोहिया जो कहते थे, वह निश्चय ही लालू यादव की समझ में सबसे ज्यादा आया है। मुलायम सिंह यादव तो अगर लोहिया का नाम लेते हैं तो आपराधिक काम करते हैं। सभी वर्गों और समाज के आखिरी आदमी को लालू यादव ने महत्व दिलवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी और जाहिर है कि जब हमारी राजनीति दूषित है तो लालू यादव पुण्यात्मा नहीं रह सकते। पिछड़े वर्गों से जगजीवन राम और चरण सिंह सत्ता के शिखरों या उनके करीब पहुंचे मगर ध्यान देना होगा कि हमारे मध्यम वर्ग में और कुलीन राजनीति ने उन्हें उनकी प्रतिभा और जनाधार के कारण अपने में शामिल कर लिया था। जगजीवन राम तो दलितों के जमींदार थे और चरण सिंह आधुनिक किसानों के पारंपरिक नेता थे। चरण सिंह के पुत्र चौधरी अजीत सिंह अब तक उनका नाम भुना कर खा रहे हैं और दल बदल का रिकॉर्ड बना चुके हैं। लालू यादव के राजनैतिक कैरियर का सबसे चमकदार क्षण मुख्यमंत्री पद पर शपथ लेना नहीं था। देश की नजरों में उनका कद तब सबसे आगे बढ़ा जब उन्होंने लाल कृष्ण आडवाणी को समस्तीपुर में रथ यात्रा के दौरान गिरफ्तार किया। भले ही विश्वनाथ प्रताप सिंह की क्षण भंगुर सरकार उनके इस कदम के कारण गिर गई हो मगर लालू यादव का कद कई गुना बढ़ गया। रही बात राम सुंदर दास की जिन्हें विश्वनाथ प्रताप सिंह बिहार का मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे, वे भी कई घपलों में फंसे और उस समय मुख्यमंत्री पद के एक और दावेदार राम लखन सिंह केंद्र सरकार में मंत्री बने और यूरिया खरीद घोटाले में पकड़े गए। अगर एक लाइन में कहना हो तो लालू यादव को आप खारिज नहीं कर सकते। चाहे जितनी कोशिश कर लें, ममता बनर्जी कितने भी श्वेत पत्र ले आए, लालू यादव ने जनता से संवाद का जो समीकरण बनाया है उसे खारिज नहीं किया जा सकता।

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