शनिवार, जुलाई 10, 2010

अमेरिकी नीति में पराधीन पाकिस्तान

अपने रणनीतिक और सामरिक हितों की सुरक्षा के नाम पर अमेरिका दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में दखल देता रहता है। उत्तरी से लेकर दक्षिणी ध्रुव तक दुनिया में कहीं भी कुछ हो तो किसी न किसी तरह वह अमेरिका के लिए चिंता का विषय बन जाता है। पाकिस्तान इससे अछूता नहीं है। सच्चाई यह है कि पाकिस्तान के साथ संबंधों के मामले में अमेरिका का रवैया मालिक की तरह रहता है, न कि एक दोस्त की तरह। अनुनय-विनय से लेकर ज़बरदस्ती तक, पाकिस्तान पर नजर एवं दबाव में रखने और कूटनीतिक पराधीनता स्वीकार करने के लिए अमेरिका किसी भी हथियार के इस्तेमाल से नहीं हिचकता।

अमेरिका पर्दे के पीछे रहकर कठपुतलियों को नचाने की अपनी नीति पर अडिग था तो पाकिस्तान पर जिम्मेदारियां बढ़ गईं। इस क्षेत्र में पैसा एवं हथियार पहुंचाने और बातचीत के लिए अमेरिका ने आईएसआई का इस्तेमाल किया। अमेरिका की इस नीति ने आईएसआई को अपने हिसाब से जंग के संचालन की अकल्पनीय स्वतंत्रता दे दी। आईएसआई ऐसे संगठनों और समूहों को समर्थन देने लगा, जो भविष्य में पाकिस्तानी हितों के संरक्षण में कारगर हो सकते थे।

पाकिस्तान की भौगोलिक-सामरिक स्थिति, परमाणु क्षमता, कृषि एवं तकनीक के क्षेत्रों में वहां मौजूद संभावनाएं और इस्लामिक विचारधारा अमेरिकी नीति-निर्माताओं के लिए लगातार गहन चिंतन का विषय बना रहा है। अमेरिका पाकिस्तान को अपने आंतरिक मामलों से निपटने की छूट कभी नहीं दे सकता। पाकिस्तान अपनी नवजात अवस्था में ही था, जब अमेरिका ने भूतपूर्व सोवियत संघ के विस्तारवादी नजरिये का हौव्वा खड़ा कर हमारे राष्ट्रीय हितों पर कब्जा कर लिया। पाकिस्तान और अमेरिका के रिश्ते उतार-चढ़ाव के कई दौरों से गुजर चुके हैं। सहयोग और प्रतिबंधों के अलग-अलग दौर में वे दोनों देशों में लगातार चर्चा का विषय बनते रहे हैं। साथ ही यह इनके संबंधों में आपसी विश्वास की कमी-बेशी के अलावा द्विपक्षीय, क्षेत्रीय एवं वैश्विक मुद्दों पर इनके विचारों में समानता और मतभिन्नता को भी एक साथ प्रतिबिंबित करता है। विश्व स्तर पर हैसियत के मामले में दोनों देशों के बीच गहरे अंतर के चलते पाकिस्तान की राजनीतिक व्यवस्था अमेरिका के साथ संबंधों को लेकर हमेशा दबाव में रही है। यह उस समय और भी ज़्यादा स्पष्ट हो गया, जब अफगानिस्तान में सोवियत सेना की मौजूदगी के खिलाफ 1980 के दशक की शुरुआत में अमेरिका, पाकिस्तान, सऊदी अरब और कई अन्य देशों ने साथ मिलकर एक इस्लामिक-अफगानी प्रतिरोध खड़ा किया। पाकिस्तान में सीआईए की दखलंदाजी की शुरुआत अफगानिस्तान पर सोवियत संघ के हमले के बाद हुई। रूस के खिलाफ लडऩे के लिए सीआईए ने आईएसआई के साथ मिलकर अफगानी जिहादी संगठनों को प्रशिक्षण देना शुरू किया। स्टीव कोल ने अपनी किताब घोस्ट वार्सद सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ सीआईए, अफगानिस्तान एंड बिन लादेन फ्रॉम द सोवियत इंवेजन टू सितंबर 10, 2001 में इस बात पर काफी जोर दिया है कि अमेरिकी गुप्तचर संस्थाएं उस समय पर्दे के पीछे रहकर सक्रिय रहना चाहती थीं। अमेरिका को यह डर सता रहा था कि अफगानी जनता के प्रति उसके समर्थन की नीति के सार्वजनिक हो जाने से सोवियत संघ के साथ संबंधों में कड़वाहट बढ़ सकती है और कहीं यह दो विश्व शक्तियों के बीच सैन्य टकराव और अंत में तीसरे विश्व युद्ध का कारण न बन जाए।

अमेरिका पर्दे के पीछे रहकर कठपुतलियों को नचाने की अपनी नीति पर अडिग था तो पाकिस्तान पर जिम्मेदारियां बढ़ गईं। इस क्षेत्र में पैसा एवं हथियार पहुंचाने और बातचीत के लिए अमेरिका ने आईएसआई का इस्तेमाल किया। अमेरिका की इस नीति ने आईएसआई को अपने हिसाब से जंग के संचालन की अकल्पनीय स्वतंत्रता दे दी। आईएसआई ऐसे संगठनों और समूहों को समर्थन देने लगा, जो भविष्य में पाकिस्तानी हितों के संरक्षण में कारगर हो सकते थे। 1988 के आते-आते सोवियत संघ यह समझ चुका था कि अफगानिस्तान में खर्च हो रही ऊर्जा और धन का औचित्य नहीं है। अफगानिस्तान छोडऩे के सोवियत संघ के फैसले में अमेरिका समर्थित स्वतंत्रता सेनानियों की बड़ी भूमिका थी। जैसे ही सोवियत सेना वहां से हटी, अमेरिका को लगा कि जैसे उसने लड़ाई जीत ली है और अफगानिस्तान में उसकी रुचि कम होने लगी। तबसे ही पाकिस्तान को लेकर अमेरिका की नीतियां उसके आंतरिक मामलों के लिहाज से ज़्यादा प्रभावकारी साबित होती रही हैं। 1980 के दशक में अमेरिका की आर्थिक और सैन्य सहायता से पाकिस्तान में कई लोगों और संगठनों को फायदा हुआ, जबकि कई अन्य को इससे नुकसान भी हुआ। सबसे ज़्यादा फायदा जनरल जिया उल हक की सैन्य सरकार और इस्लामिक विचारधारा वाले राजनीतिक दलों एवं समूहों को हुआ।
                अफगानिस्तान से सोवियत सेना को भगाने के लिए सीआईए एवं आईएसआई ने अमेरिकी धन और हथियारों के सहारे इस्लामिक कट्टरवादिता एवं आतंकवाद को जमकर बढ़ावा दिया। पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान से लेकर बाद की तमाम सरकारों को सुरक्षा और आर्थिक सहयोग के लिए ऐसे समझौतों को मंजूरी देने को मजबूर होना पड़ा, जो पाकिस्तान के म़ुकाबले अमेरिका के लिए ज़्यादा मुफीद थे। दूसरे देशों के मामलों में दखलंदाजी के लिए अमेरिका अपनी राजनीतिक और आर्थिक ताकत के अलावा अपने खु़फिया आतंकी संगठन सीआईए का भी बखूबी इस्तेमाल करता रहा है। मिर्जा असलम बेग ने अपने एक आलेख में लिखा है, पाकिस्तान में अलग-अलग सरकारों के दौर में अमेरिका महत्वपूर्ण पदों पर अपने विश्वसनीय एजेंटों को नियुक्त करता रहा है, ताकि वह पाकिस्तान की आंतरिक व्यवस्था को अपने हिसाब से ढाल सके।

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