गुरुवार, जुलाई 15, 2010

कैसे स्कूल चलें हम

मध्यप्रदेश सरकार जिस तरह से प्रदेश में साक्षरता पर जोर दे रही है उससे लगता है कि आगामी समय में यह प्रदेश देश के सबसे साक्षर राज्य केरल को भी पीछे छोड़ देगा। जागरूकता लाकर छात्रों को स्कूल तक पहुंचाने के लिए जिस तरह से सरकार ने दो-दो सर्वे कराए और पानी की तरह पैसा बहाया उससे ऐसा लगता है कि सरकार शिक्षा के मामले में कोई कोताही नहीं बरतना चाह रही है। बावजूद इसके करोड़ों रूपए खर्च करने के बाद भी अब तक किए गए प्रयासों से न तो प्रदेश के स्कूलों में किसी तरह का बदलाव नजर आया है और ना ही इस तरह के किसी बदलाव की गुंजाइश ही बनी हैं क्योंकि आज भी ज्यादातर स्कूल मूलभूत बुनियादी सुविधाओं के लिए जूझ रहे हैं। इस तरह नए शैक्षणिक सत्र में भी बच्चों को स्कूल पहुंचाने का पूरा अभियान मात्र रैलियों, रेडियों, टीवी और अखबारों में छपे विज्ञापनों तथा ख्यातनाम हस्तियों की चमक-धमक में सिमट कर रह गया है।

प्रदेश में अशिक्षा का अंधकार मिटाने के लिए की गई एक अच्छी पहल सरकार की ही अधूरी इच्छा शक्ति की शिकार हो गई है। शिक्षकों की तरह सरकार भी शहरों का मोह नहीं छोड़ पा रही है। इसी का परिणाम है कि यह अभियान भी शहरों के गली मोहल्लों तक सिमट गया। लोगों के घरों पर यह अभियान नजर आ रहा है और न स्कूलों पर इसका कोई असर पड़ रहा है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भले ही इसे जन आंदोलन बनाने की अपील कर रहे है, लेकिन आश्चर्य जनक सच्चाई यह है कि सितारों की चकाचौंध के बावजूद मुख्यमंत्री की महत्वाकांक्षा केवल शहरों तक ही सिमट कर रह गई है।

टीवी स्टार और भाजपा महिला मोर्चा की अध्यक्ष स्मृति ईरानी प्रदेश सरकार के बुलावे पर शुजालपुर जरूर गईं पर उत्कृष्ट विद्यालय में ही कार्यक्रम को संबोधित कर लौट आई। जबकि यह आयोजन बच्चों को स्कूल तक लाने के लिए था, क्षेत्र के किसी गांव में पहुंचकर अपील की जाती तो पालकों पर भी कोई असर पड़ता। अब अन्नू कपूर को लीजिए भोपाल आए और सायकल रैली को हरी झंडी दिखा कर स्कूल चले अभियान पूरा कर दिया। जबकि चाहिए यह था कि सरकार अन्नू कपूर को भोपाल के किसी दूरदराज बस्ती या गांव में ले जाती। ताकि उनका चेहरा देखने के बहाने ही गांव के लोग शिक्षा की कुछ बातें तो सुनते। इन सबके चलते सरकार के यह सारे आयोजन सरकारी खजाने को बेवजह खाली करने के अलावा कुछ नहीं लग रहे हैं और न ही इससे कोई तस्वीर बदलने की भी आशा की जा सकती है।

यह बात अलग है कि बच्चों को शालाओं में लाने के लिए पहले भी केंद्र और राज्यों की सरकार बड़े बजट के कई कार्यक्रम चला रही हैं। अभियान के तहत शत प्रतिशत बच्चों को स्कूल में प्रवेश दिलाने का लक्ष्य रखा गया है। अशिक्षा का दंश शहरों की तुलना में गांवों में अधिक है। जागरुकता कार्यक्रमों की सर्वाधिक जरूरत गांवों में हैं। स्कूलों की हालत भी गांव में ही खराब है। शहरों में तो प्रायवेट स्कूल भी हैं, लेकिन गांवों में सारा दारोमदार सरकारी स्कूलों पर है। नारे, रैली, सितारों की भरमार गांवों में होना चाहिए थी। होर्डिग्स, बैनर, दीवार लेखन गांवों में होना चाहिए था। मगर यह प्रदेश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि सरकार की पूरी कवायद शहर से गांवों की ओर नहीं बढ़ सकी। यहां इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि शहर में कोई अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में पढ़ाना नहीं चाहता लेकिन दूर-दराज के गांव में बसने वाले उन मासूमों और उनके परिजनों का क्या दोष जिनकी साक्षरता का एक मात्र सहारा सरकारी स्कूल ही हैं।

गांवों में रहने वाले ऐसे ही बच्चों को स्कूल से जोडऩे के लिए बनाए गए कार्यक्रमों को स्कूल चलें हम, सर्वशिक्षा अभियान अथवा ऐसा ही और कोई नाम दिए गए, परंतु विद्यालय से बाहर रहने वाले सभी बच्चों को शाला में लाने का काम पूरा नहीं हो सका। मध्यप्रदेश में ही अभी लगभग लाखों बच्चे इस योग्य होकर भी विद्यालय नहीं जा पा रहे हैं। जाहिर है ये सारे बच्चे समाज के कमजोर, वंचित वर्ग के ही हैं और किसी न किसी रूप में बाल मजदूरी करके अपना पेट भर रहे हैं। अकेले भोपाल संभाग में ही 9 हजार 230 बच्चे ऐसे हैं, जिनको विद्यालयों में होना चाहिए, परंतु ये बच्चे विद्यालय से बाहर हैं। शिक्षा विभाग ने पहले भी शाला में नहीं आने वाले बच्चों का सर्वेक्षण करवाया, बच्चों को स्कूलों में लाने की योजना बनाई, खर्च भी किया, परंतु सभी बच्चों को विद्यालय से नहीं जोड़ सका। ऐसे में सरकार ने भारतीय प्रशासनिक सेवा के 50 अफसरों को यह जिम्मेदारी सौंपी है कि वे शिक्षा का अधिकार अधिनियम के प्रावधानों को लागू कराने के लिए सभी जिला, विकासखंड मुख्यालयों का दौरा करें। स्कूलों में ढांचागत सुधारों के लिए प्रदेश सरकार को 5 हजार 500 करोड़ की जरूरत है। इसके लिए आगामी तीन वर्षों में शिक्षा का स्तर सुधारने प्रदेश सरकार ने केंद्र सरकार से लगभग 19 हजार करोड़ की मांग भी की है।

बहरहाल सरकार की यह कवायद कारगर होती है अथवा नहीं यह तो भविष्य के गर्त में छिपा है लेकिन शिक्षा का अधिकार अधिनियम के प्रावधान का शत-प्रतिशत पालन करने के निर्देश के बाद भी आला अफसर बेफिक्र हैं। ऐसे में यह विचार करना जरूरी है कि अभी प्रदेश में शिक्षा की क्या स्थिति है। क्या हमारे प्रदेश का शैक्षणिक वातावरण स्तरीय शिक्षा के मापदंड को पूरा करता है? वस्तुस्थिति यह है कि राजधानी भोपाल से लेकर दूरदराज के गांवों तक सरकारी विद्यालयों की हालत ठीक नहीं है। नियमानुसार प्रत्येक विद्यालय का अपना भवन होना चाहिए पर एक हजार से अधिक विद्यालय भवन नहीं होने से पेड़ों के नीचे चल रहे हैं। कहीं पर्याप्त शिक्षक नहीं हैं तो कहीं बड़ी संख्या में पढऩे योग्य बच्चे विद्यालय नहीं जाकर माता-पिता के साथ खेत-खलिहान के काम कर रहे हैं। कहीं मध्याह्न भोजन के नाम पर खानापूर्ति की जा रही है तो कहीं पालक-शिक्षक संघ राजनीति के अखाड़े बन गए हैं। कई स्थानों पर यह देखा गया है कि शिक्षक दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्रों में जाने से बचना चाहते हैं। इसका विपरीत असर गांव के बच्चों की शिक्षा पर हो रहा है।

आजादी के 62 वर्षों बाद शिक्षा की इस बदतर स्थिति के लिए शिक्षामंत्री अर्चना चिटनिस जो स्वयं शिक्षिका रह चुकी हैं मानती हैं कि सरकारी स्कूलों की गिरती साख के पीछे जितने जबावदार राजनेता हैं उतने ही हमारे शिक्षक हैं। भाई भतीजावाद भी शिक्षा की बदहाली में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। यदि समय रहते इस पर लगाम नहीं लगाई गई तो शिक्षा ही क्या किसी भी क्षेत्र में विकास संभव नहीं है। यदि प्रदेश के दूरदराज के अंचलों को छोड़ भी दिया जाए तो राजधानी भोपाल में ही कई शासकीय प्राथमिक विद्यालयों में छात्रों की संख्या के अनुपात में पर्याप्त शिक्षक नहीं हैं। जो हैं भी वह सरकार द्वारा सौंपे गए इतर कामों को करने में ज्यादा रूचि रखते हैं। मध्यप्रदेश शिक्षक संघ के सुभाष दिक्षित कहते हैं कि प्रदेश के 80 प्रतिशत स्कूल जहां अव्यस्थाओं के शिकार हैं वहीं सरकार के नित नए आदेश भी बेहतर शिक्षा में बाधा बनते हैं उदाहरण लीजिए जब शिक्षकों को सुबह साढ़े छह बजे बुलाया जाएगा तो भला सोचिए क्या कोई शिक्षक समय से स्कूल पहुंच पाएगा। क्योंंकि सुबह न तो वाहन मिलते हैं और ना ही बच्चे स्कूल पहुंचते हैं। फिर ऐसे में प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और शिक्षामंत्री अर्चना चिटनिस का प्रदेश में स्कूल चले अभियान की पूरी कवायद महज दिखावा ही प्रतीत होती हैं क्योंकिविद्यालयों कि अव्यवस्था जल्द दूर होगी मात्र कह देने से न तो प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था में सुधार आएगा और न ही हमारे यहां ऐसे काबिल छात्र तैयार हो पाएंगे।

राज्य की शिक्षा मंत्री अर्चना चिटनिस भी यह बात स्वीकार कर चुकी हैं कि विद्यालयों में शिक्षकों की कमी है। पर क्या शिक्षकों की कमी को पूरा किया जा रहा है। अगले कुछ माह में प्रत्येक शाला में जरूरत के मुताबिक शिक्षक पदस्थ करने का लक्ष्य है जबकि भवनों, कक्षों की कमी भी बच्चों की शिक्षा में रोड़ा है। शिक्षा विभाग के अधिकारियों की माने तो प्रदेश में इस समय लगभग 27036 शिक्षकों की आवश्कता है और जब तक विद्यालयों में शिक्षकों की कमी तथा अन्य व्यवस्थाओं को पूरी तरह ठीक नहीं किया जाता तब तक शिक्षा का अधिकार सही मायने में बच्चों को मिलना मुश्किल ही है। यदि शिक्षा के अधिकार के पूरी तरह पालन की बात की जाए तो इसके लिए 60 हजार शिक्षकों की आवश्यकता होगी। अब यह सवाल महत्वपूर्ण है कि जब विद्यालयों में पर्याप्त संख्या में शिक्षक ही नहीं हैं तो फिर शिक्षा के अधिकार अधिनियम का पूरी तरह पालन कैसे संभव हो पाएगा। केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में लागू शिक्षा का अधिकार अधिनियम में यह उल्लेख है कि 60 बच्चों पर दो शिक्षक, 61 से 90 बच्चों पर तीन शिक्षक, 91 से 120 बच्चों तक चार शिक्षक, 121 से 200 बच्चों तक पांच शिक्षक होने चाहिये। अधिनियम के अनुसार 200 से अधिक बच्चों पर शिक्षक छात्र 1:40 के अनुपात में होने चाहिये। यह अधिनियम छात्र शिक्षक अनुपात के बारे में जो मापदण्ड निर्धारित करता है उसका पालन मध्यप्रदेश के शायद ही किसी विद्यालय में हो रहा हो?

प्रदेश के किसी भी प्राथमिक विद्यालय में छात्र शिक्षक का उचित अनुपात नहीं है। स्कूल शिक्षा विभाग के एक आधिकारिक सर्वेक्षण के अनुसार मध्यप्रदेश के 14 हजार 500 शासकीय विद्यालय एक-एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। राज्य के 14 हजार 593 शासकीय प्राथमिक विद्यालयों में केवल एक-एक शिक्षक ही पदस्थ है। इन शिक्षकों पर पहली कक्षा से पांचवी कक्षा तक के सभी बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ शिक्षा विभाग की विभिन्न योजनाओं के संचालन व निगरानी करने की जिम्मेदारी भी है। राज्य की शिक्षा मंत्री के गृह जिले बुरहानपुर के नेपानगर की प्राथमिक शाला चूना मट्टा के 150 बच्चे मात्र एक शिक्षक के हवाले है। इसी प्रकार देवास, धार व बड़वानी जिले से लेकर भोपाल के विभिन्न शासकीय प्राथमिक विद्यालयों में छात्रों की संख्या के अनुपात में पर्याप्त शिक्षक नहीं हैं। कहीं विद्यालय भवन में पर्याप्त कक्ष नहीं हैं तो कहीं फर्नीचर, कापी-किताब, गणवेश, छात्रवृत्ति, पेयजल, मध्यान्ह भोजन, शौचालय आदि को लेकर तरह-तरह की शिकायतें हैं। फिर इन अव्यवस्थाओं के बीच भला प्रदेश का बच्चा क्यों कहेगा स्कूल चले हम।

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