गुरुवार, जुलाई 15, 2010

जनता का जीना हुआ मुहाल


सिंहासन है चूसता अब जनता का खून,

जनता भूखों मर रही खाती आलू भून

खतम हुआ सब राशन कोटा

देख तेल की धार, दाल आंटे का टोटा

किसी साहित्यकार की यह उर्पयुक्त रचना भले ही काल्पनिक है लेकिन यह देश की सामायिक स्थित को पुरजोर तरीके से उजागर कर रहा है। लगातार बढ़ती महंगाई और सत्तापक्ष तथा विपक्षी दलों द्वारा इस मामले को गंभीरता से न लेने के कारण आम जनता की दिक्कतें लगातार बढ़ती जा रही हैं। स्थिति यह है कि यदि यही हालात रहे तो आम जनता खास कर गरीब और माध्यम वर्ग के लोगों का जीना मुहाल हो जाएगा। दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही महंगाई के कारण जरूरी सामान आम आदमी की पहुंच से दूर होता जा रहा है। अब हर किसी के लिए देशी घी का स्वाद लेना आसान बात नहीं रह गई। वहीं हमारे द्वारा बनाई गई सरकारें बजाय कुछ ऐतिहाती कदम उठाने के, हमारा ही खून चूसने पर तुली हुई है। हमारे वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी और कृषि मंत्री शरद पवार कह रहे हैं कि मंहगाई रोक पाना उनके वश में नहीं है, अब वे साफ तौर पर अपने हाथ खड़े कर चुके हैं और कह रहे हैं कि अगर मंहगाई को रोकना है तो राज्य सरकारों को ही पहल करनी होगी। राज्य सरकारें केन्द्र सरकार को दोष दे रही हैं और जनता दोनों ही सरकारों की चपेट में आ पिस रही है। मंहगाई की लगातार बढ़ती मार का असल कारण क्या है, इस पर विचार करने की जरूरत पर किसी का ध्यान नहीं है।

भारत इकलौता ऐसा विकासशील देश है जहां कीमतें बढ़ रही हैं। पूरी दुनिया मंदी के दौर से उबरते हुए खाने पीने की चीजों और ईंधन की कीमत घट रही है लेकिन अपने यहाँ बढ़ रही है। यह सत्ताधारी पार्टियों की असफलता का सबूत है। खाने के सामान की जो कीमतें बढ़ रही हैं उसके लिए बड़ी कंपनियां जिम्मेदार हैं। राजनीतिक पार्टियों को मोटा चंदा देने वाली लगभग सभी पूंजीपति घराने उपभोक्ता चीजों के बाजार में हैं। उनके पास जमाखोरी करने की आर्थिक ताकत है। केंद्र सरकार ने जब मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था की बात शुरू की थी तो सही आर्थिक सोच वाले लोगों ने चेतावनी दी थी कि ऐसा करने से देश पैसे वालों के रहमो करम पर रह जाएगा और मध्य वर्ग को हर तरफ से पिसना पड़ेगा। इसे देश का दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि शहरी मध्यवर्ग के लिए हर चीज महंगी है लेकिन इसे पैदा करने वाले किसान को उसकी वाजिब कीमत ही नहीं मिल रही है। किसान से जो कुछ भी सरकार खरीद रही है उसका लागत मूल्य भी उसे नहीं मिल रहा है।

उपभोक्ता आज कई गुना ज्यादा कीमत दे जेब ढ़ीली कर रहा है। हमारी आर्थिक नीतियां ही हमे सड़क में आने के मजबूर कर रही हैं। लेकिन अब तक देश की जनता ने इतना साहस नहीं दिखाया कि वह सरकार की पूजीपति परस्त नीतियों का हर मोड़ पर विरोध कर सके। यदि ऐसा नहीं हुआ तो भूखों मरने के अलावा कोई चारा भी नहीं रहेगा।। कितना हास्यास्पद है यह कि जब से कांग्रेस की गठबंधन सरकार सत्ता में आई है मंहगाई की रफ्तार राकेट से भी ज़्यादा तेज हो गयी है! देश में मंहगाई की मार ने आम आदमी को ऐसा मारा है की उसके मुंह से रोटी निवाला तक दूर हो गया है! ऐसे में देश के वित्तमंत्री के पास पता नहीं कौन सी जादू की पुडिय़ा है जो हर इंसान की परेशानी खत्म कर देंगी! पूर्ववर्ती सरकारों के प्रधानमंत्री कोई अर्थ-शास्त्री नहीं थे, फिर भी उनके कार्यकाल में मंहगाई इतनी चर्चा का विषय नहीं रही! जब की अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिह के कार्यकाल में मंहगाई ने जनता को त्रस्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी! मानों अर्थशास्त्री प्रधानमन्त्री के सभी फार्मूले फेल हो गए हैं? कृषि मंत्री को किसानों से कोई लेना-देना नहीं! तो एक अरब की आबादी पार कर रहे इस देश के लोगों के मुह से दूर होते निवाले को कौन करीब लायेगा! किसान बदहाल, आम इंसान परेशान, मध्यम वर्ग पर पड़ता करों का बोझ, सरकार की हर मोर्चे पर बिफलता और कमजोर विपक्ष देश के आने बाले कल पर सवालिया निशान ही लगा रहे है!

देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जनरहनुमाई और मंहगाई घटाने वाले लोक लुभावने वायदों की पोल उस समय खुली जब विगत माह पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा डीजल-पेट्रोल और केरोसीन के नए दामों में वृद्धि की सूचना दे रहे थे। सूचना देने के साथ-साथ वह कई दूसरे काम भी कर रहे थे। उन्होंने पहला काम यह किया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को झूठा साबित कर दिया। दूसरा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की विश्वसनीयता खत्म कर दी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लगातार ऐसे काम कर रहे हैं जिसके कारण वे असत्य की साक्षात प्रतिमा बनकर रह गए हैं। मंहगाई के सवाल पर संसद के विगत अधिवेशन में प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री दोनों ने ही यह वायदा किया था कि जुलाई तक मंहगाई कम होने लगेगी। 'यूपीए 2Ó आने के बाद वे हमेशा यही कहते रहे हैं कि मंहगाई कुछ महीनों में कम हो जाएगी लेकिन मंहगाई बढ़ती जा रही है। इन्हीं आश्वसनों के बीच सरकार ने एक वर्ष पूरे कर लिए। पेट्रोलियम पदार्थों के दामों में मौजूदा बढ़ोत्तरी और इन्हें बाजार के रहमोकरम पर छोडऩे के बाद तो मंहगाई अब कभी कम नहीं होगी। भले ही यह कहा जा रहा है कि हर पखवाड़े इनके दामों को पुनिरिक्षित किया जाएगा।

पेट्रोलियम पदार्थों में की गई मौजूदा बढ़ोत्तरी को छोड़ भी दिया जाए तो मंहगाई के खिलाफ अभी तक आम जनता प्रतिवाद करती नजर नहीं आई। वह भी तब जब गरीबों के ईधन से भी राज्य सरकारें अमीर बनने का कोई मौका नहीं छोड़ रही हैं। मसलन केरोसिन को गरीब जनता का ईधन कहा जाता है और इसकी कीमत को लेकर राजनीति भी खूब होती है, लेकिन इस पर कर लगा कर सरकार खजाना भर रही है। देश में तीन राज्यों ने गरीबों के इस ईधन पर 10 फीसदी से ज्यादा का कर लगा रखा है। अन्य राज्यों का रिकार्ड भी बहुत साफ नहीं है। मजे की बात यह है कि केरोसिन पर कर लगाने में कांग्रेस शासित राज्यों के अलावा एनडीए की सरकारें भी शामिल हैं। यह बात अलग है कि हाल ही में राष्ट्रव्यापी बंद का आह्वान करने में एनडीए आगे रही है, लेकिन इसके दो राज्यों में केरोसिन पर आम आदमी से 10 फीसदी से ज्यादा का कर वसूला जा रहा है। कांग्रेस शासित हरियाणा सरकार की कहानी भी अलग नहीं है। हरियाणा में केरोसिन पर पांच फीसदी का वैट और पांच फीसदी का अतिरिक्त कर लगा रखा है यानी वहां भी दस फीसदी का टैक्स केरोसिन पर। गुजरात, हिमाचल प्रदेश और पांडिचेरी ने केरोसिन पर कोई वैट नहीं लगाया गया है। जबकि अन्य सभी राज्यों ने इस पर कम से कम चार फीसदी का न्यूनतम वैट की दर जरूर लगाई है। दिल्ली, असम, केरल, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान सहित कई राज्यों ने पांच फीसदी का वैट लगाया हुआ है। उत्तर प्रदेश और उड़ीसा ने तो केरोसिन को दूसरे राज्यों से लाने पर इंट्री टैक्स लगा रखा है। पेट्रोलियम मंत्रालय के एक अधिकारी के मुताबिक यह राज्यों के व्यवहार को बताता है। जिसे एक तरफ राजनीतिक दल गरीबों का उत्पाद बता रहे हैं उसे बाहर से लाने पर अतिरिक्त टैक्स लगा रहे हैं। सरकारी सूत्रों के मुताबिक अगर राजनीतिक दलों को वाकई गरीब जनता से इतना ख्याल होता तो वे अपने-अपने राज्यों में केरोसिन पर शुल्क कम कर सकते थे। यही नहीं, केरोसिन की कालाबाजारी रोकने में भी ये राज्य सरकारें कोई ठोस कदम नहीं उठाती हैं ताकि केरोसिन की आपूर्ति ठीक की जा सके।

कमर तोड़ महंगाई को लेकर केंद्रीय शासन जैसी संवेदनहीनता का परिचय दे रहा है उसे देखते हुए विपक्षी राजनैतिक दलों द्वारा ऐसी कोई व्यापक रणनीति नहीं बनाई गई जो सरकार को दबाव में ले जनता को राहत दे सके। और हुआ भी यही देश के कुछ हिस्सों में प्रभावी और कुछ में निष्प्रभावी साबित हुए भारत बंद के बाद केंद्र सरकार पेट्रोलियम पदार्थो के बढ़े मूल्य वापस लेने के लिए शायद ही तैयार हो। केंद्रीय सत्ता उन कारणों पर गौर करने से रही जिनके चलते महंगाई बढ़ रही है। आखिर क्या वजह है कि मंहगाई के खिलाफ जनता के तमतमाए चेहरे आम जीवन से गायब हैं? मंहगाई को मनमोहन सरकार हाशिए पर डालने में सफल क्यों रही है? क्या ऐसा नहीं लगता कि जानबूझ कर एक सोची समझी चाल के तहत आवश्यक चीजो जैंसे तेल, गैस की सप्लाई घटाकर अंतर्राष्ट्रीय तेल कीमतों का रोना रोया जा रहा है ! चेन्नई, बैंगलूर और दिल्ली जैसे शहरों में डीजल, पेट्रोल और गैस की तंगी इस बात के सबूत हैं ! लक्ष्य यह है कि वस्तुओ की कमी दिखा कर, लोगो से ऊँचे दाम वसूले जाए ! सप्लाई की मात्रा कम होने की वजह से ग्राहक औने-पौने दाम पर सामान खरीदने को मजबूर है! अब अंत में सवाल उठता है की आखिर यह क्यो और कैसे हो रहा है? जबाब सीधा-साधा है जिन्हें यह सब देखने सुधारने और देश चलने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी वे सिर्फ अपने निहित स्वार्थो को पूरा करने और सत्ता से चिपके रहने के लिए जोड़तोड़ में व्यस्त हैं!


                                                      क्यों महंगा हैं पेट्रोल !                                   
एक लीटर पेट्रोल के लिए 56.87 रुपये खर्च करने वाले क्या जानते हैं कि तेल की वास्तविक कीमत क्या है? यदि नहीं तो जानना चाहिए, एक लीटर पेट्रोल कीमत महज 16.50 रुपये ही है। बाकी सब टैक्स। अब एक बात की जानकारी और। देश में एक लीटर पेट्रोल पर 11.80 रुपये केंद्रीय कर, 9.75 रुपये एक्साइज ड्यूटी, चार रुपये सेस के साथ ही प्रदेश सरकार आठ रुपये टैक्स लेती है। यह सब मिलाकर एक लीटर पेट्रोल की कीमत होती है, लगभग 48.05 रुपये। बाकी का पैसा कहां जाता है, उपभोक्ता को मालूम ही नहीं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं कि पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में एक लीटर पेट्रोल 26 रुपये लीटर, बांग्लादेश में 22 रुपये लीटर, नेपाल में 24 रुपये लीटर, अफगानिस्तान में 36 रुपये लीटर, बर्मा में 30 रुपये लीटर, क्यूबा में 19 रुपये लीटर और कतर में एक लीटर पेट्रोल 30 रुपये में मिल रहा है। बावजूद इसके भारत जैसे विकासशील देश में इसकी कीमतें आए दिन बढ़ती है मानों सरकार देश में दिए जाने वाले सभी रियायतों की प्रतिपूर्ति मंहगाई बढ़ाने में मूलरूप से जिम्मवार तेल उत्पादों से ही करती हो।

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