गुरुवार, दिसंबर 08, 2011

प्रशासन के बहाने कटघरे पर सरकार


 अपने बयानों को लेकर भाजपा प्रदेश उपाध्यक्ष पद गवां चुके सांसद रघुनंदन शर्मा ने अपनी धार कम नहीं की है। मध्यप्रदेश में हो रही तमाम गड़बडिय़ों के लिए सरकार ही नहीं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के क्रियाकलापों पर सवाल लगा, पार्टी के कोप का शिकार हुए शर्मा ने एक बार फिर राजगढ़ के जीरापुर में खाद की कमी को लेकर घटी हिंसक वारदात के लिए स्थानीय प्रशासन को दोषी ठहराया है। 
 पार्टी गाइड लाइन के पर खाद की किल्लत से जूझ रहे प्रदेश के किसानों की दयनीय स्थित पर वह भले ही कुछ नहीं बोल पाए लेकिन सरकार को जीरापुरा में हुए हादसे के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहराने के बजाय उन्होंने प्रशासन को माध्यम बनाया है। इसके लिए उन्होंने सार्वजनिक मंच के बजाय पार्टी फोरम का चयन किया है। जीरापुर से लौटने के बाद पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा को सौंपे गए प्रतिवेदन में वह सफाई के साथ अपनी बात रखने में सफल भी रहे हैं। प्रभावित व्यापारियों को तत्काल राहत की आवश्यकता पर बल देते हुए  इस घटना को कांग्रेसी साजिश की परिणीत बताया वहीं स्थानीय प्रशासन को कानून व्यवस्था बनाए रखने में अक्षम बताते हुए कहा कि वह स्थिति का आंकलन कर ऐहतियात बरतने में विफल रहा है। यदि स्थानीय प्रशासन सजग होता तो स्थिति को नियंत्रण में लिया जा सकता था। इससे पहले भी स्कूलों में गीता पढ़ाए जाने को लेकर दिया गया भाजपा सांसद का बयान चर्चा में रह चुका है। 
                जानकार मानते हैं कि सरकार का नियंत्रण अफसरों को लोकल्याणकारी प्रशासन देने के लिए विवश करता है। लेकिन सीधी जिले के एक मामले में जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह स्वयं यह स्वीकार कर चुके हैं कि स्वास्थ्य महकमे की लापरवाही के कारण इतनी बेटियां काल के गाल में समा गई और नौकरशाही ने इसकी भनक तक नहीं लगने दी,  यह साबित करता है कि सरकार और प्रशासन के बीच बेहतर तालमेल नहीं है। यह सरकार की प्रशासनिक अक्षमता का भी उदाहरण है। 
                 गैंस त्रासदी के शिकार और उनके परिजनों द्वारा प्रायोजित रेल रोको आंदोलन में शामिल लोगों की दशा भी प्रशासन क्षमता पर प्रश्रचिंह खड़ा करती है। यह जानकारी आने के बाद कि गैस पीडि़त पिछले एक महीने से रेल रोंकने का अभ्यास कर रहे थे। इतना ही नहीं मीडिया के माध्यम से प्रशासन तक वह अपने आंदोलन की सूचना भी दे रहे थे के बाद भी हंगामा खड़ा होना न केवल सरकारी भेदियों की निष्फलता दर्शाता है बल्कि भोपाल के उस लोक प्रशासन को कटघरे में खड़ा भी करता है जिसने जन आंदोलन का शांतिपूर्ण ढंग से निराकरण करने के बजाय सशस्त्र दमनकारी नीति को अंजाम दिया है। बावजूद इसके सरकार बेपरवाह बनी हुई है। वह भी तब जबकि झाडू और फिनायल के लिए उज्जैन नगर निगम को मिली राशि स्टोरकीपर के घर बर्तनों में बंद हो 12 करोड़ हो जाती है।

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