वर्षो से उपेक्षा और अलगाव के बीच जीवन यापन कर रहे आदिवासी समुदाय अब अपने हितों की रक्षा के लिए लाठियां लेकर अलगाव पर उतर सकता है। इसकी मुख्य वजह हैं सरकार और उसके तंत्र द्वारा इस वर्ग की वर्षो से की जा रही उपेक्षा। आजाद भारत के इक्कीसवीं सदी में भी यह समुदाय शिक्षा, स्वास्थ्य और समानता के साथ ही अत्यावश्यक मूलभूत सुविधाओं से वंचित है। आदिवासी समाज के उत्थान के लिए कृतसंकल्पित वनवासी कल्याण परिषद का प्रयासों से आई जनचेतना ने वनवासी समाज को जहां एक सूत्र में पिरोया है वहीं उसका आत्म विश्वास बढ़ाया है। हक के लिए आरपार की लड़ाई लडऩे को बेताब विदिशा जिले के यह वनवासी मांग पूरी नहीं होने तक आंदोलन से पीछे हटने को तैयार नहीं है। भारत सरकार द्वारा आदिवासी समाज के उत्थान के लिए अलग मंत्रालय की स्थापना कर उनकी संस्कृति बचाने तथा उन्हें मूलभूत सुविधाएं दिलाने के साथ उनक जीवन स्तर सुधारने के लिए करोड़ों रूपए प्रतिवर्ष खर्च करती है। लेकिन यह विडंबना ही कही जाएगी कि इस समाज के लोगों की हालत जस की तस बनी हुई है। दो जून की रोटी के लिए जंगलो में रह रहे यह परिवार आज बंधुआ मजदूर बन कर रह गए हैं। जबकि हमारी सरकार इस प्रथा को खतम करने का जी तोड प्रयास कर रही है और व्यापक रूप में मध्यप्रदेश शासन एवं भारत सरकार श्रमविभाग इसका प्रचार प्रसार करके समय-समय पर डीगें भी हांकते है। परंतु स्थित कुछ और ही बयान करती हैं। हकीकत यह है कि बालश्रमिक और बंधुआ मजदूरी रोकने के लिये शासन स्तर पर कठोर कानून का प्रावधान अब तक नहीं किया गया है ना ही इसे सख्ती से लागू किया गया। जिसके चलते न तो बाल मजदूरी रूक पाई और न ही शासन बंधुआ मजदूरी कराने वालों के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई ही कर पाया। बंधुआ मजदूर रोजी-रोटी की तलाश में महानगरों की ओर रूख करने वाले आदिवासी समुदाय के बच्चे ही सबसे ज्यादा बालश्रम के लिए बाध्य होते हैं। बड़ी बड़ी फैक्ट्रियां, भव्य इमारतें, कवाड़ का काम, कचरा बीनने का काम और यहां तक की कुछ ऐसे कार्य हैं जिसमें बाल श्रमिको की तादाद दिन प्रतिदिन बढती जा रही है। परंतु शासन प्रशासन सिर्फ प्रचार प्रसार कर बालश्रमिक और बालमजदूरी रोकने का प्रयास करती है। हकीकत यह है कि शासन इनके उत्थान पुर्नवास के लिये कुछ नहीं कर रही हैं यहां तक की बंधुआ मजदूरी या बाल मजदूरी में लिप्त पाये गये बच्चो के लिये शासन के द्वारा कोई
उपाय नहीं किये जाते और जिन उद्योगपत्तियों ठेकेदारों द्वारा यह कृत्य करवाया जा रहा है। उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं होती है। श्रमिकों को तत्कालीन कोई राहत न मिलने से रोजी रोटी का संकट उनके ऊपर मडराने लगता है। इस संबंध में श्रम विभाग के लोगों की बात माने तो कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। जिससे उन्हें तत्काल राहत मिल सके। अगर बात मध्यप्रदेश की जाए तो राजधानी के नजदीक विदिशा जिले की ही हालत इस मामले में काफी खराब है। यदि यह हालात राजधानी के पड़ोसी जिलों के हैं तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि प्रदेश के दूरदराज के जिलों में क्या हालात होगें। विदिशा में वनवासी समाज के लोगों के हितों की रक्षा के लिए सरकार से लड़ाई लड़ रहे वनवासी मुक्ति मोर्चा के जयप्रसाद बताते हैं कि भय, भूख और भ्रष्टाचार युक्त व्यवस्था में वनवासी समाज का विकास प्रभावित हो रहा है। शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी सुविधाओं से वंचित इन परिवारों के साथ हो रहा शोषण आजादी के 60 दशक बाद भी रूका नहीं है। इसके लिए शासकीय अव्यवस्था को जिम्मेदार ठहराते हुए वह बताते हैं कि रोजगार गारंटी योजना, गरीबी हटाओ योजना आदि का सही तरीके से क्रियांवयन नहीं हो पाने के कारण वनवासी समाज आज भी गरीब बना हुआ है। वनवासियों की जमीने षडयंत्र के तहत छीन ली गई या दबंगों ने उस पर जबरिया कब्जा कर लिया। जो बची हैं उस पर भी इनकी निगाहें टिकी हैं। इक्कीसवी सदी में भी यह हालात हैं कि ऐसे शोषित पिडि़त परिवारों को काम के बदले मात्र एक बोरा गेंहू ही प्रतिमाह दिया जाता है। सरकार और उसके नुमाइंदों को कटघरे में खड़ा करते हुए जयप्रसाद कहते हैं कि सहरिया, पारदी, बंजारा आदिवासी परिवारों के बाहुल्य वाले इस जिले में शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी, और शासन द्वारा इन इस वर्ग के उत्थान के लिए चलाई जा रही योजनाओं का लाभ दिलाने कई बार तहसील और जिला स्तर पर आदिवासी परिवारों द्वारा वृहद स्तर पर आंदोलन भी किए गए लेकिन सरकार और उसके कर्ताधर्ताओं ने गंभीर विषय पर कार्रवाई तो दूर बात करने की जरूरत हीं नहीं समझी। जबकि एसडीएम और कलेक्टर के माध्यम से हक और न्याय की लड़ाई लड़ रहे आदिवासियों ने राष्ट्रपति को ज्ञापन भी सौंपा था। ऐसा नहीं है कि प्रचलित बंधुआ मजदूरी सरकार और उसकी एजेंसियां अवगत नहीं हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सहित जनअधिकारों की रक्षा करने वाले कई संगठनों ने समय-समय पर चिंता जाहिर करते हुए बंधुआ मजदूरी प्रथा का पूरी तरह खात्मा करने की वकालत की है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्य न्यायमूर्ति बी. सी. पटेल प्रदेश की राजधानी में
आयोजित एक कार्यशाला में यह मान चुके हैं कि यह प्रथा मानव अधिकारों का सबसे बड़ा उल्लंघन है। इस प्रथा को पूरी तरह खत्म करने के लिए राज्य सरकार को प्रभावी रणनीति बनाना चाहिए। पटेल का मानना है कि प्रत्येक नागरिक को समान काम के मुताबिक वेतन और समानता का व्यवहार मिलना चाहिए। व उपलब्ध आंकड़े बाताते हैं कि नवउदारवादी दौर के बाद, इक्कीसवीं सदी के भारत की खासियत यह है कि यह अरबपतियों की कुल दौलत के लिहाज से अमेरिका के बाद दुनिया में दूसरे नम्बर पर है, लेकिन बेघरों, कुपोषितों, भूखों और अनपढ़ों की तादाद के लिहाज से भी दुनिया में पहले नम्बर पर है। ऐश्वर्य-समृद्धि की चकाचौंध भरी दुनिया का दूसरा अन्धकारमय पहलू यह है कि (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार) देश की 18 करोड़ आबादी झुग्गियों में रहती है और 18 करोड़ आबादी फुटपाथों पर सोती है। लेकिन मानवता के खिलाफ पनपी इस अवयवस्था को समूल नष्ट करने के लिए प्रभावी रणनीति बनाने और उसके क्रियांवयन की आवश्यकता पर जोर नहीं दिया गया है। यदि सरकार स्थानीय स्तर पर भरपूर रोजगार के अवसर उपलब्ध कराएं तो गरीबी और बेरोजगारी के साथ ही तमाम कुप्रथाओं को समाप्त किया जा सकता है जो किसी भी व्यक्ति के सामाजिक पुर्नवास में बाधक है। यह स्थित तब है जब न्यूतम निर्धारित मजदूरी अधिनियम 1948, खनिज अधिनियम 1952, खनिज नियम 1959, बंधुआ मजदूरी अधिनियम 1976, जमीदारी प्रथा उन्मूलन अधिनियम, अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम लागू है। लेकिन प्रशासनिक उदासीनता के कारण यह पूर्णत: प्रभावी नहीं हो पाए हैं।
बाक्स .....गंजबासौदा तहसील के कंजना सहित अन्य गांवों में बंधुआ मजदूरी कर रहे वनवासियों को मुक्त कराने के लिए वनवासी मुक्ति मोर्चा ने कई आन्दोलन किए ज्ञापन सौंपा लेकिन समस्या का निराकरण आज तक नहीं किया गया। आदिवासी इलाके वैदकचौड़ा में पीने के पानी की गंभीर समस्या है तो कोहना और बड़ी वीर में आज तक बिजली नहीं पहुंची। गांव में रह रहे बच्चे हिन्दी पढऩा नहंी जानते। ऐसे में आदिवासियों का सब्र टूट रहा हैं। सुविधाओं से वंचित आदिवासियों का सब्र टूट रहा है और इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि वह हथियार नहीं थामेंगे।
जयप्रसाद संयोजक, वनवासी मुक्ति मोर्चा
शनिवार, फ़रवरी 27, 2010
हक के लिए थाम सकते हैं लाठी
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें