गुरुवार, मार्च 04, 2010

राष्ट्र में ही राज भाषा बन गई हिन्दी



पता तो पहले से था मगर गुजरात उच्च न्यायालय के बंगाली मुख्य न्यायाधीश ने याद दिलाया कि भारत की राष्ट्र भाषा हिंदी नहीं है। एक जनहित याचिका पर फैसला देते हुए उन्होंने यह तो माना कि भारत में सबसे ज्यादा लोग हिंदी बोलते हैं लेकिन भारत के संविधान में इसे राष्ट्र भाषा नहीं माना गया है। यह सिर्फ राज भाषा है। अपील में मांग की गई थी कि साबुन, दवाईयां और दैनिक उपयोग की चीजों के पैकेटों पर उनका नाम और विवरण हिंदी में लिखा जाना चाहिए क्योंकि हिंदी सबसे ज्यादा लोग समझते हैं।इस फैसले पर बात करे इससे पहले एक पूर्वाग्रह का जिक्र करना जरूरी होगा। न्यायमूर्ति एस जे मुखोपाध्याय के फैसले ने निजी तौर पर मुझे चकित नहीं किया। जहां तक बंगालियों की बात है तो उनके लिए दुनिया में बांग्ला के अलावा कोई दूसरी भाषा नहीं हैं और कोलकाता से आपकी रेल वर्धवान पार करती है तो बंगालियों के लिए पंजाब शुरू हो जाता है। उनके लिए बंगाल छोड़ कर पूरा देश पंजाब है। इस सामाजिक धारणा का अर्थ क्या हैं यह तो शोध का विषय हैं मगर एक समवेत अहंकार बंगालियों में हमेशा से रहा है और हो सकता है कि यह फैसला भी उसी का एक प्रतीक हो। लेकिन यह सही है कि संविधान सभा में पूरे दस घंटे चली बहस के बावजूद हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा नहीं दिया गया। संविधान सभा के अध्यक्ष भीमराव अंबेडकर मराठी भाषी थे मगर वे हिंदी के पक्ष में थे। राज भाषा भी बनाया गया और अंग्रेजी को सहायक राज भाषा बनाया गया मगर सरकारी फाइलों में आपको हिंदी अपवाद स्वरूप ही नजर आएगी। यह तब है जब भारत का सबसे बड़ा वर्ग हिंदी बोलता और समझता हैं और कम से कम अंग्रेजी की तुलना में भाषा विज्ञान और व्याकरण के हिसाब से हिंदी अंग्रेजी से बहुत आगे हैं। फिर भी आप लोकप्रिय इंटरनेट मंचों पर हिंदी का विकल्प बहुत कम पाएंगे। वहां फारसी हैं, हिबू्र है, यहां तक कि अफ्रीका के छोटे देशों की भाषाएं भी हैं मगर न हिंदी हैं और न उर्दू है। संविधान सभा ने तय किया था कि देवनागरी में लिखी गई हिंदी को राज भाषा माना जाएगा। मगर इस राज भाषा का व्याकरण और शब्द कोष इतना विकट हैं कि इस हिंदी का फिर से हिंदी में अनुवाद करना पड़ता है। एक वाक्य पढ़ लीजिए- विभाग की परिकल्पित परिलब्धियों के प्रावधान को आकलित करने के उपरांत विभागीय और अंतर्विभागीय आनुषांगिक व्ययों के लिए उपलब्ध शेष राशि का निवारण और विकल्पन किया जाएगा। इस वाक्य को पढऩे और समझने में समय लगेगा इसलिए छोड़ दीजिए लेकिन इसका सीधा साधा मतलब यह है कि विभाग ने जितनी आमदनी सोची थी और विभाग के उप विभागों के तात्कालिक और अचानक होने वाले खर्चों के लिए जो रकम बचेगी उसका हिसाब कर के फैसला किया जाएगा कि कहां खर्च की जाए। तो हमने राज भाषा बनाई भी और उसे पहेली बना कर छोड़ दिया। संयोग से हिंदी या हिंदुस्तानी दुनिया में एक और देश की राज भाषा है और उसका नाम फिजी है। हिंदी भाषा के प्राकृत स्वरूप से विकसित हुई है और फिर बहुत सारी बोलियों ब्रज, अवधी, से होते हुए खड़ी बोली तक पहुंची है। हालांकि अब ब्रज और अवधी के अलावा भोजपुरी भी अलग भाषा होने का दावा करने की मुद्रा में हैं मगर उनका व्याकरण हिंदी वाला ही है। वैसे उर्दू को न भाषा विज्ञान में और न राजकीय रूप से कोई संपूर्ण मान्यता मिली हुई है। उर्दू अगर फारसी अक्षरों वाली लिपी नहीं में नहीं लिखी जाए तो वह हिंदुस्तानी हो जाती है। यही हिंदुस्तानी हमारी ज्यादातर फिल्मों की भाषा हैं जो पूरी दुनिया में सबकी समझ में आती है। इसलिए हिंदी उर्दू का झगड़ा असल में राजनैतिक ज्यादा हैं और भाषा का कम है। जहां तक हिंदी की बात है तो राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़, हिमाचल, झारखंड और बिहार में मुख्य ही नहीं, एक मात्र भाषा हैं। और तो और अंडमान निकोबार द्वीप समूह में यह दूसरे नंबर की बड़ी भाषा है। पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र और न्यायमूर्ति मुखोपाध्याय के बंगाल में भी हिंदी समझी, पढ़ी और बोली जाती है। सिर्फ कोलकाता में हिंदी के पांच अखबार निकलते है जिनमें से एक सन्मार्ग तो लाखों में बिकता है। न्यायमूर्ति मुखोपाध्याय ने अपना फैसला तकनीकी दरार से निकाल कर दिया है लेकिन उन्हें भी पता होगा कि दवाईयों के पैकेट पर अगर नाम हिंदी में लिखे जाए तो इससे कोई कानून नहीं टूटता। फिजी के संविधान में एक्ट 13/1997/4/1 के तहत हिंदी को फिजी और अंग्रेजी के अलावा सरकारी संवाद की भाषा माना गया है। साफ कहा गया है कि जो भी व्यक्ति किसी विभाग, कार्यालय या स्थानीय अधिकारी से संपर्क करता है वह अंग्रेजी, फिजी या हिंदुस्तानी में संवाद करने के लिए स्वतंत्र हैं और जरूरी हो तो दुभाषिए का इस्तेमाल कर सकता है। जहां तक उर्दू की बात है तो वह पाकिस्तान की राज भाषा है और भारत में भी कई हिस्सों में इसे राज भाषा का दर्जा दिया गया है। मुंबई की बात फिलहाल भूल जाइए। वहां अगर वश चले तो राज ठाकरे सिद्धि विनायक मंदिर पर भी संस्कृत के मंत्रों का मराठी में अनुवाद करवा के पूजा करवाए और हाजी अली पर नमाज भी मराठी में बोली जाए। महाराष्ट्र में जो हो रहा है वह कबीला संस्कार के तहत हो रहा है और इसका अंत जैसा कि कबीलों में होता है, खून खराबे में होना तय है। अंग्रेजी शायद जरूरी है मगर हिंदी की कीमत पर नहीं। फिर भी हम अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाते हैं और उनके जिंगल वेल्स पर निहाल होते है। बच्चे जब पूछते हैं कि 56 क्या होता है तो हम गर्व से उन्हें बताते है कि फिफ्टी सिक्स। एक पूरी पीढ़ी विकसित हो रही है जो हिंदी को सिर्फ देहातियों, सब्जी वालों और ऑटो रिक्शा चलाने वालों की भाषा मान कर चलती है और इस पीढ़ी का जो होगा सो होगा मगर आज से पंद्रह बीस साल बाद यह पीढ़ी देश का क्या करेगी यह सोच कर डर लगता है। हिंदी की सार्वत्रिकता पर एक किस्सा इस तरह से है। केरल में कोट्टयम से कोई साठ किलोमीटर दूर एक कस्बा है पुन्नलूर। परिवार के साथ कार में केरल घूम रहा था। कार में कोई खराबी आई। मैकेनिक ने बोनट खोल कर देखा। हाथ से इशारा किया कि पांच सौ रुपए लगेंगे। फिर घड़ी पर उंगली से बताया कि चार पांच घंटे लग सकते हैं। हम लोग पास के एक होटल में जा कर टिक गए। देर रात गाड़ी ठीक कर के वह आदमी आया और अचानक उसकी फीस पांच हजार रुपए हो गई थी। इशारो ही इशारो में यह रकम बताई गई थी क्योंकि धारणा है कि दक्षिण भारत और खास तौर पर केरल के एक कस्बे में हिंदी कोई नहीं जानता। थोड़ी देर समझाया और तब तक शराब पी चुका वह मैकेनिक अड़ा रहा तो फिर अपन से भी नहीं रहा गया और हिंदी में वे गालियां देनी शुरू कर दी जो आम तौर पर सभ्य लोगों के सामने दी जाती है। इस भाई को गालियां तुरंत समझ में आ गई और फिर वह टूटी फुटी हिंदी में ही सही, समझाने लगा कि नए पुर्जे डालने पड़े हैं। एक प्रशिक्षु आईपीएस जो बिहार के थे और केरल काडर में नौकरी शुरू ही की थी, वहां के डीएसपी का काम देख रहे थे, जब उन्हें फोन किया गया और वे आ भी गए, उन्हें देखते ही मैकेनिक का नशा हिरन हो गया और बाकायदा हिंदी में उन्होंने कहा कि सर मैं तो मेहनत का पैसा मांग रहा हूं। अब जिस देश में हिंदी मंजूर करवाने के लिए गालियां देनी पड़े वहां हिंदी का भविष्य क्या होगा, आप खुद सोच लीजिए।

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