पंकज शुक्ला
पकिस्तान में पदस्थ रहते हुए जासूसी के आरोप में गिरफ्तार महिला राजनयिक माधुरी गुप्ता के मामले ने भले ही खुफिया एजेंसियों के साथ ही देश की आम जनता को स्तब्ध कर दिया हो लेकिन यह कोई पहली घटना नहीं है जब इस तरह के संगीन आरोप किसी पर लगे हैं। यह घटना सामने आने के बाद देश में चर्चाओं का दौर जारी है। एक तबका मानता है कि गृह मंत्रालय नहीं चाहता कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पाकिस्तान से समग्र वार्ता करें। जबकि प्रधानमंत्री की रुचि इसमें दिखाई पड़ती है। माधुरी मामले का ब्योरा जिस प्रकार का है उससे गृह मंत्रालय की इस धारणा की पुष्टि होती है कि जब तक पाकिस्तान भारत के खिलाफ शत्रुतापूर्ण व्यवहार बंद नहीं करता तब तक उससे समग्र वार्ता का कोई मतलब नहीं है। इसके वाबजूद माधुरी का मामला गंभीर है। अगर देखा जाए तो विगत तीन वर्ष पहले 2007 में ही कोलंबो में नियुक्त विदेश सेवा के अधिकारी रवि नायर को एक चीनी महिला के साथ घनिष्ठ संबंधों और जासूसी के आरोप में वापस बुलाया गया था वहीं 2005 में रिसर्च और एनालिसिस विंग (रॉ) के अतिरिक्त निदेशक रविन्दर सिंह भी अमेरिका के लिए जासूसी करते पाए गए थे लेकिन मामला उजागर होने के बाद वह अमेरिका भाग गए। इतना ही नहीं अब तक नौ रॉ अधिकारियों को विदेशी एजेंसियों के लिए जासूसी के संदेह में बर्खास्त किया जा चुका है। वहीं जासूसी 1992-93 में रॉ के एक वरिष्ठ अधिकारी का निजी सचिव लंदन में गायब हो गया तो इससे पहले रॉ अधिकारी अशोक साठे रहस्यमय परिस्थितियों में गायब हो गए थे। उन पर अमेरिका भाग जाने और ईरान के खुर्रमशहर स्थित भारतीय दूतावास में हुई आगजनी में हाथ होने का संदेह है। हमारे पौराणिक दस्तावेज भी दुश्मन के प्रभाव में आकर घर का भेद उजागर करने की कहानी बयां करते हैं। इसका सबसे उदाहरण राम रावण युद्ध में मिलता है जिसमें राम के लिए रावण के अत्याचारों से त्रस्त उसके ही भाई विभीषण द्वारा जासूसी करने का उल्लेख रामायण में मिलता है। बहरहाल बात देश की वर्तमान परिस्थितियों की हो रही है। जिसमें भारत के दुश्मन के तौर पर पाकिस्तान यह काम 1947 से कर रहा है और इसी तरह हम भी करते हैं। खुफिया एजेंसियां जानकारी इक_ा करने के लिए ही होती हैं। इंसानी खुफियागीरी के लिए एजेंटों की भरती की जरूरत होती है। हालांकि हमें इस बात से जरूर परेशान होना चाहिए कि भारतीय उच्चायोग में पाकिस्तान ने दूसरी बार सेंध लगाई है, पर इस बारे में अपनी अक्षमता
पर छाती पीटने की कोई जरूरत नहीं है। पाकिस्तान ने पहली बार 1980 में ज्यादा वरिष्ठ और संवेदनशील स्तर पर सेंध लगाई थी। इस घटना को भारत-पाक के नाटकीय रिश्तों में एक और प्रभावशाली दृश्य के रूप में जोडऩे की कोई जरूरत नहीं है। जरूरत इस घटना के विश्लेषण की है ताकि समझा जा सके कि उस महिला की भरती कैसे हुई, वह किस तरह से काम करती थी और किसलिए उसने पाकिस्तानी खुफिया विभाग के लिए काम किया। इस विश्लेषण के तीन उद्देश्य होने चाहिए। पहला उद्देश्य यह तलाशने का होना चाहिए कि भारत के जवाबी खुफिया ढांचे में क्या कमजोरी है जिसके चलते पाकिस्तानी एजेंट उसे अपने साथ जोड़ सका। दूसरा उद्देश्य यह आकलन होना चाहिए कि माधुरी ने कितना नुकसान पहुंचाया। तीसरा उद्देश्य यह जानना होना चाहिए कि पाकिस्तानी खुफिया एजंसी किस तरह से काम करती है। पाकिस्तानी खुफिया एजंसी से माधुरी के संबंधों का क्या इतिहास है और उसने कितना नुकसान पहुंचाया है इस बारे में तस्वीर साफ नहीं है। इस बीच मीडिया में आने वाली तरह-तरह की खबरों के बीच एक खबर ने हमें ज्यादा आकर्षित किया। हालांकि उसकी पुष्टि नहीं हो सकी है पर उसमें कहा गया है कि वह आईएसआई से नहीं पाकिस्तानी आईबी से जुड़ी थी। यह बात सही निकलती है तो इससे साबित होगा कि पाकिस्तानी आईबी एक बार फिर अफगानिस्तान में भारत की भूमिका के बारे में जानकारियां जुटाने में सक्रिय है। पाकिस्तानी आईबी 1971 तक बहुत सक्रिय थी। सन 1971 के बाद और विशेषकर जनरल जिया-उल-हक के समय में आईबी की भू्मिका को घटाकर आईएसआई को भारत विरोधी गुप्तचरी से लेकर आतंकवाद के प्रोत्साहन और दूसरे गोपनीय कामों की कमान सौंपी गई। इस बीच आईबी का सैन्यकरण करते हुए इसमें सेना के रिटायर और मौजूदा अफसरों को भरती किया गया। परवेज मुशर्रफ के समय में यह प्रक्रिया तेज हुई और आईबी आईएसआई की दुमछल्ला बन गई। जब बेनजीर भुट्टो प्रधानमंत्री बनीं तो उन्होंने आईबी के पुलिस वाले चरित्र को बहाल किया और उसे पाकिस्तान की खुफिया बिरादरी में ज्यादा सक्रिय और स्वतंत्र भूमिका प्रदान की। लेकिन आईएसआई ने उनके प्रयासों को बेकार कर दिया। सितंबर 2008 में राष्ट्रपति बनने के बाद आसिफ अली जरदारी की कोशिश आईबी को वैसा ही महत्व दिलाने की है जैसा उसे 1971 के पहले हासिल था। वे चाहते हैं कि आईबी पाकिस्तान की प्रमुख आंतरिक खुफिया और सुरक्षा एजेंसी बन जाए। उन्होंने यह काम अपने विश्वासपात्र और देश के आंतरिक सुरक्षा मंत्री रहमान
मलिक के जिम्मे सौंपा है जो स्वयं एक रिटायर पुलिस अधिकारी हैं। वे आईबी में पुलिस अफसरों का महत्व बहाल करने और सेना के अफसरों का कम करने में लगे हैं। आईबी के मौजूदा महानिदेशक जावेद नूर हैं जो इससे पहले पाक अधिकृत कश्मीर में आईजी हुआ करते थे। अमेरिका भी पाकिस्तान में आईबी की भूमिका को बढ़ाने और आईएसआई की बदनाम भूमिका को कम करवाना चाहता है। उसने इसके लिए धन भी दिया है। जबकि हमारे दिमाग पर आईएसआई हौवा इतना हावी है कि हम आईबी पर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं। अगर माधुरी गुप्ता के आईबी से जुड़े होने की खबरें सही हैं तो हमारा फोकस बदलना चाहिए।
पकिस्तान में पदस्थ रहते हुए जासूसी के आरोप में गिरफ्तार महिला राजनयिक माधुरी गुप्ता के मामले ने भले ही खुफिया एजेंसियों के साथ ही देश की आम जनता को स्तब्ध कर दिया हो लेकिन यह कोई पहली घटना नहीं है जब इस तरह के संगीन आरोप किसी पर लगे हैं। यह घटना सामने आने के बाद देश में चर्चाओं का दौर जारी है। एक तबका मानता है कि गृह मंत्रालय नहीं चाहता कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पाकिस्तान से समग्र वार्ता करें। जबकि प्रधानमंत्री की रुचि इसमें दिखाई पड़ती है। माधुरी मामले का ब्योरा जिस प्रकार का है उससे गृह मंत्रालय की इस धारणा की पुष्टि होती है कि जब तक पाकिस्तान भारत के खिलाफ शत्रुतापूर्ण व्यवहार बंद नहीं करता तब तक उससे समग्र वार्ता का कोई मतलब नहीं है। इसके वाबजूद माधुरी का मामला गंभीर है। अगर देखा जाए तो विगत तीन वर्ष पहले 2007 में ही कोलंबो में नियुक्त विदेश सेवा के अधिकारी रवि नायर को एक चीनी महिला के साथ घनिष्ठ संबंधों और जासूसी के आरोप में वापस बुलाया गया था वहीं 2005 में रिसर्च और एनालिसिस विंग (रॉ) के अतिरिक्त निदेशक रविन्दर सिंह भी अमेरिका के लिए जासूसी करते पाए गए थे लेकिन मामला उजागर होने के बाद वह अमेरिका भाग गए। इतना ही नहीं अब तक नौ रॉ अधिकारियों को विदेशी एजेंसियों के लिए जासूसी के संदेह में बर्खास्त किया जा चुका है। वहीं जासूसी 1992-93 में रॉ के एक वरिष्ठ अधिकारी का निजी सचिव लंदन में गायब हो गया तो इससे पहले रॉ अधिकारी अशोक साठे रहस्यमय परिस्थितियों में गायब हो गए थे। उन पर अमेरिका भाग जाने और ईरान के खुर्रमशहर स्थित भारतीय दूतावास में हुई आगजनी में हाथ होने का संदेह है। हमारे पौराणिक दस्तावेज भी दुश्मन के प्रभाव में आकर घर का भेद उजागर करने की कहानी बयां करते हैं। इसका सबसे उदाहरण राम रावण युद्ध में मिलता है जिसमें राम के लिए रावण के अत्याचारों से त्रस्त उसके ही भाई विभीषण द्वारा जासूसी करने का उल्लेख रामायण में मिलता है। बहरहाल बात देश की वर्तमान परिस्थितियों की हो रही है। जिसमें भारत के दुश्मन के तौर पर पाकिस्तान यह काम 1947 से कर रहा है और इसी तरह हम भी करते हैं। खुफिया एजेंसियां जानकारी इक_ा करने के लिए ही होती हैं। इंसानी खुफियागीरी के लिए एजेंटों की भरती की जरूरत होती है। हालांकि हमें इस बात से जरूर परेशान होना चाहिए कि भारतीय उच्चायोग में पाकिस्तान ने दूसरी बार सेंध लगाई है, पर इस बारे में अपनी अक्षमता
पर छाती पीटने की कोई जरूरत नहीं है। पाकिस्तान ने पहली बार 1980 में ज्यादा वरिष्ठ और संवेदनशील स्तर पर सेंध लगाई थी। इस घटना को भारत-पाक के नाटकीय रिश्तों में एक और प्रभावशाली दृश्य के रूप में जोडऩे की कोई जरूरत नहीं है। जरूरत इस घटना के विश्लेषण की है ताकि समझा जा सके कि उस महिला की भरती कैसे हुई, वह किस तरह से काम करती थी और किसलिए उसने पाकिस्तानी खुफिया विभाग के लिए काम किया। इस विश्लेषण के तीन उद्देश्य होने चाहिए। पहला उद्देश्य यह तलाशने का होना चाहिए कि भारत के जवाबी खुफिया ढांचे में क्या कमजोरी है जिसके चलते पाकिस्तानी एजेंट उसे अपने साथ जोड़ सका। दूसरा उद्देश्य यह आकलन होना चाहिए कि माधुरी ने कितना नुकसान पहुंचाया। तीसरा उद्देश्य यह जानना होना चाहिए कि पाकिस्तानी खुफिया एजंसी किस तरह से काम करती है। पाकिस्तानी खुफिया एजंसी से माधुरी के संबंधों का क्या इतिहास है और उसने कितना नुकसान पहुंचाया है इस बारे में तस्वीर साफ नहीं है। इस बीच मीडिया में आने वाली तरह-तरह की खबरों के बीच एक खबर ने हमें ज्यादा आकर्षित किया। हालांकि उसकी पुष्टि नहीं हो सकी है पर उसमें कहा गया है कि वह आईएसआई से नहीं पाकिस्तानी आईबी से जुड़ी थी। यह बात सही निकलती है तो इससे साबित होगा कि पाकिस्तानी आईबी एक बार फिर अफगानिस्तान में भारत की भूमिका के बारे में जानकारियां जुटाने में सक्रिय है। पाकिस्तानी आईबी 1971 तक बहुत सक्रिय थी। सन 1971 के बाद और विशेषकर जनरल जिया-उल-हक के समय में आईबी की भू्मिका को घटाकर आईएसआई को भारत विरोधी गुप्तचरी से लेकर आतंकवाद के प्रोत्साहन और दूसरे गोपनीय कामों की कमान सौंपी गई। इस बीच आईबी का सैन्यकरण करते हुए इसमें सेना के रिटायर और मौजूदा अफसरों को भरती किया गया। परवेज मुशर्रफ के समय में यह प्रक्रिया तेज हुई और आईबी आईएसआई की दुमछल्ला बन गई। जब बेनजीर भुट्टो प्रधानमंत्री बनीं तो उन्होंने आईबी के पुलिस वाले चरित्र को बहाल किया और उसे पाकिस्तान की खुफिया बिरादरी में ज्यादा सक्रिय और स्वतंत्र भूमिका प्रदान की। लेकिन आईएसआई ने उनके प्रयासों को बेकार कर दिया। सितंबर 2008 में राष्ट्रपति बनने के बाद आसिफ अली जरदारी की कोशिश आईबी को वैसा ही महत्व दिलाने की है जैसा उसे 1971 के पहले हासिल था। वे चाहते हैं कि आईबी पाकिस्तान की प्रमुख आंतरिक खुफिया और सुरक्षा एजेंसी बन जाए। उन्होंने यह काम अपने विश्वासपात्र और देश के आंतरिक सुरक्षा मंत्री रहमान
मलिक के जिम्मे सौंपा है जो स्वयं एक रिटायर पुलिस अधिकारी हैं। वे आईबी में पुलिस अफसरों का महत्व बहाल करने और सेना के अफसरों का कम करने में लगे हैं। आईबी के मौजूदा महानिदेशक जावेद नूर हैं जो इससे पहले पाक अधिकृत कश्मीर में आईजी हुआ करते थे। अमेरिका भी पाकिस्तान में आईबी की भूमिका को बढ़ाने और आईएसआई की बदनाम भूमिका को कम करवाना चाहता है। उसने इसके लिए धन भी दिया है। जबकि हमारे दिमाग पर आईएसआई हौवा इतना हावी है कि हम आईबी पर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं। अगर माधुरी गुप्ता के आईबी से जुड़े होने की खबरें सही हैं तो हमारा फोकस बदलना चाहिए।
यह देश के लिए एक गंभीर खतरा है...यदि अभी से सजगता नही दिखाई तो परिणाम देश के हित मे अच्छे नही होगें।...अच्छा व विचारणीय आलेख लिखा है।आभार।
जवाब देंहटाएंजिस तरह आज हमारी राजनीति ने हर जांच एजेंसी यहाँ तक की न्यायालयों को भी अपने हाथ की कठपुतली बना के रख छोड़ा है, ऐसे में किसी कर्मठ अधिकारी से आप क्या उम्मीद कर सकते है की वो अपने विवेक से इन सब बातों पर नजर रखेगा ? रही मात इस महिला की तो ये महिला तो मुझे शक्ल से भी संदेहास्पद लगती है !
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