यह मात्र दिल्ली रेल्वे स्टेशन की बात नहीं है ऐसी अव्यवस्था से आम आदमी को आए दिन रेलवे के सभी स्टेशनों में दो चार होना पड़ता है। हादसे की पुनरावृत्ति से ऐसा लगता है कि रेलवे को ना तो ऐसी घटनाओं से कोई फर्क पड़ता और न ही विभाग के मुखिया को। यदि पड़ता होता तो वैसी गलती एक बार फिर नहीं की जाती जैसी पहले भी अनेक बार की जा चुकी है। क्या रेल कर्मचारी अभी तक यह सामान्य सी बात नहीं जान सके हैं कि भीड़ भरे रेलवे स्टेशन पर जब ट्रेन आने वाली हो तब उसका प्लेटफार्म बदलने की घोषणा करना कितना खतरनाक हो सकता है? इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि रेलमंत्री ने रेलवे स्टेशन पर हुए हादसे की उच्च स्तरीय जांच की घोषणा कर दी है।
इस मामले में किसी गहन जांच की आवश्यकता कम ही जान पड़ती है, क्योंकि पहली नजर में यही प्रतीत हो रहा है कि अंतिम समय ट्रेनों का प्लेटफार्म बदलने की घोषणा ने अव्यवस्था को निमंत्रित किया। यदि यह जांच भी रेल विभाग की अन्य जांचों जैसी होती है तो यह और भी आपत्तिजनक होगा। इस संदर्भ में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि यह विभाग बार-बार एक जैसे कारणों से होने वाले हादसों का सामना करने के लिए अभिशप्त सा है। जब भी रेलवे प्लेटफार्म अथवा रेल पटरियों पर कोई हादसा होता है तो दो काम तत्परता से किए जाते हैं- एक जांच की घोषणा का और दूसरा, मुआवजे के ऐलान का। इस बार भी ऐसा ही किया गया। आखिर रेलवे में पिछली गलतियां दोहराने का सिलसिला कब थमेगा? नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर घटी घटना यह भी साबित करती है कि रेलवे अपने यात्रियों की सुविधाओं की पहले की तरह अनदेखी करने में लगा हुआ है। कम से कम उसे तो यह अच्छी तरह पता होना चाहिए कि गर्मी की छुट्टी और विवाह के कारण ट्रेनों में भीड़ बढ़ गई है।
आखिर रेल अधिकारियों ने यह सुनिश्चित क्यों नहीं किया कि अंतिम समय ट्रेनों का प्लेटफार्म बदले जाने की सूरत में भगदड़ न मचने पाए? सवाल यह भी है कि रेल यात्रियों की बढ़ी हुई संख्या को देखते हुए पर्याप्त संख्या में विशेष ट्रेनें क्यों नहीं चलाई गईं? वैसे रेल अधिकारियों को यह बताने की भी जरूरत है कि छुट्टियों और त्योहारों के अवसर पर जो विशेष ट्रेनें चलाई जाती हैं वे मुश्किल से ही तय समय पर गंतव्य पर पहुंच पाती हैं। यही कारण है कि लोग मजबूरी में ही उनमें यात्रा करते हैं। छुट्टियों और त्योहारों के समय देश के बड़े रेलवे स्टेशन भीड़ से भर जाते हैं, लेकिन वहां यात्री सुविधाओं का हाल पहले जैसा ही रहता है। क्या इस ओर कोई ध्यान देने वाला नहीं है? एक सवाल यह भी है कि रेल यात्रियों की बढ़ती संख्या के बावजूद ज्यादातर ट्रेनों में जनरल डिब्बों की संख्या दो से अधिक क्यों नहीं हो पा रही है? कहीं इसलिए तो नहीं कि उनमें आम जनता सफर करती है?
चुनाव आने दीजिए आवाज की प्रवाह बदल ही जायेगी ।
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