शनिवार, मई 29, 2010

देश का असली दुश्मन कौन.?

पंकज शुक्ला
हम इस समय इतिहास के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं जब हमारे चारों ओर शुत्रओं का जमावड़ा है। पूरब में बांग्लादेश, पश्चिम में पाकिस्तान, उत्तर में चीन और दक्षिण में श्रीलंका के साथ-साथ वहां पनप रही आतंकियों की फौज हर समय भारत पर कुदृष्टि डाले हुए हैं, जिसमें से दो शत्रु परमाणु शस्त्रों से लैस हैं। इन बाह्यï शत्रुओं के अलावा हम आंतरिक शत्रुओं से भी जूझ रहे हैं। यानी भारत आज एक ऐसा देश हो गया हैं जहां यह तय करना मुश्किल हो गया है कि उसका असली दुश्मन कौन है?
देश के बाहरी शत्रुओं के बढ़ते दुस्साहस का जवाब देने की मजबूत स्थिति में होने के बावजूद हमारी सरकारें और राजनेता भी अनिर्णय की स्थिति में है जिसके कारण आज देश उस कगार पर खड़ा है जहां आगे कुंआ और पीछे खाई की स्थिति वहीं भारत की आंतरिक स्थिति ऐसी है कि कभी आतंकवाद तो कभी नक्सलवाद खूनी खेल खेल रहा है और रही सही कसर क्षेत्रवाद, जातिवाद और भाई-भतीजावाद के द्वंद में निकल रहा है। भारत की इस स्थिति पर यह कहना गलत नहीं होगा कि खरबूजा-खरबूजे को देखकर रंग बदलता है यही हाल है हमारे देश के रहनुमाओं का, जन-गण-मन के भाग्य विधायकों का, अपने लायक नालायकों का? देश आंसुओं के घूंट पी रहा है, आजादी अबला सी बिलख-बिलख रोती है, उसका सुहाग, सुख सुविधा, सबके सब जानबूझकर लुटे हुए बैठे हैं! आजादी कहां जाये? डूबने को चुल्लू भर पानी तक नही है! आदमी आदमी को ठग रहा है! उजियारा अंधियारी के आगे भाग रहा है? प्रगति, प्रतिभा, ज्ञान-विज्ञान, सभी कुछ निजी हित के लिए रह गए है! देश टकटकी लगाए .....करुण चीत्कार, घोर हाहाकार, आदमी स्वयं के लिए भी, ईमानदार नहीं रह गया है! आशंकाएं, विद्रोह, विघटन और स्वर्थान्धवादी दृष्टिकोण हर तरफ.....,हाय रे, बेईमानों को देख, बेईमान बढ़ रहे हैं, ईमानदार को देख ....., सबके सब हंस रहे हैं ! आखिर इसके लिए दोषी कौन है?
पहले बात करते हैं बाहरी शत्रुओं की। भारत से समान संस्कृति वाले पड़ोसी देश वे चाहे मित्र थे या शत्रु तमाम चीन के पाले में चले गए है। पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यानमार, श्रीलंका, सेशेल्स, मॉरीशस, मालदीव और इंडोनेशिया जैसे देशों में चीन का प्रभुत्व साफ तौर पर देखा जा सकता है। इनमें से पाकिस्तान को छोड़कर बाकी ऐसे देश हैं जहाँ पहले भारत का सिक्का चलता था। लेकिन भारत सरकार की ढुलमुल और अव्यवहारिक नीतियों की वजह से भारत अपनी साख गँवा चुका है। भारत को इस तरह घेरने के बाद आर्थिक रूप से भारत को बरबाद करने के लिए चीन ने अपने घटिया और सस्ते माल से भारत के बाजारों को पाट दिया। कई छोटे उद्योग नष्ट हो गए और भारतीय मुद्रा भी चीन गई। अमेरिका को कोसने में व्यस्त वामपंथी और समाजवादी इस मुद्दे पर दोगले साबित हुए है। जब दुश्मन के हितैषी ही देश में बैठें है तो वह देश को तोडऩे के सपने क्यों न देखे? चीन भारत को अपने पॉश में जकडऩे में सफल हुआ है। कोई रणनीति है भी क्या? सिद्धांतों के बोझ तले दबा भारतीय न तो बलिदान के लिए तैयार है और न ही लड़ मरने के लिए तैयार दिखता है। बारबार कुत्ते की मौत मर कर भी दुश्मन से गले मिलने को मूर्ख ही तत्पर हो सकता है। और हम कायर और मूर्ख हैं। वरना शांतिदूत बनने के चक्कर में सयुंक्त राष्ट्र की अपनी सदस्यता चीन को क्यों देते? बदले में क्या मिला? एक करारी हार। वो तो भला हो समय सर हुए चीनी आक्रमण का जो भारतीय सेना को ही खत्म कर देने के सपने देखने वाले अंहिसावादियों के होश ठिकाने लगा दिये वरना स्वतंत्र होने से पहले ही देश परतंत्र हो चुका होता। सामरिक दृष्टि से भारत चीन से कमजोर भले ही हो मगर परमाणु-शक्ति के चलते भारत से पूर्ण युद्ध चीन भी नहीं चाहेगा। चीन परोक्ष युद्ध लड़ेगा और ऐसे युद्ध का सामना सरकार या सेना नहीं नागरिक करते हैं। क्या हम इसके लिए तैयार हैं? क्या हम तकनीकी रूप से सक्षम लोग, चीनी सायबर हमले का मुँहतोड़ जवाब देने को तैयार है? क्या हम उपभोक्ता के रूप में सस्ते चीनी माल को खरीदना बन्द करने को तैयार है? कम से कम भारत के लिए ऐसा करना ही होगा। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में किसी भी देश को यह चुनने का अधिकार नहीं है कि उसके पड़ोसी कौन होंगे। कुछ तो भौगोलिक कारणों से और कुछ राजनीतिक कारणों से कई देशों को ऐसे पड़ोसियों के साथ रहना पड़ता है जो उसके हर काम में टांग अड़ाता है और जो प्रत्यक्ष रूप से दोस्ती का दम भरता है परंतु पर्दे के पीछे से पीठ में छुरा घोंपने में जरा भी संकोच नहीं करता। दुर्भाग्यवश भारत की स्थिति यही है। आज की तारीख में वह ऐसे पड़ोसियों से घिर गया है जिनके गैर दोस्ताना रवैये के कारण वह परेशान हो गया हैं।
1949 में साम्यवादियों ने चीन की मुख्य भूमि पर कब्जा कर लिया। भारत ने चीन की आजादी का स्वागत किया। परंतु चीन की साम्यवादी पार्टी के सुप्रीमो माउ-त्से-तुंग ने खुलकर ऐलान किया कि चीन की आजादी तब तक पूरी नहीं होगी जब तक तिब्बत को आजाद नहीं किया जाएगा। माओ-त्से-तुंग के इस कथन पर भारत आश्चर्यचकित हो गया। तिब्बत को आखिर किससे आजाद कराना था? यह सच है कि भारत और चीन के बीच तिब्बत एक बफर राज्य था जो राजनीतिक और सांस्कृतिक मामलों में चीन के बनिस्पत भारत से ज्यादा करीब था। रक्षा के मामले में तिब्बत भारत का प्रोटेक्टोरेट था। दूसरे शब्दों में तिब्बत की रक्षा की जिम्मेदारी भारत की थी। भूटान की तरह तिब्बत की विदेश नीति का संचालन भारत ही करता था। तिब्बत में भारतीय मुद्रा का चलन था। वहाँ भारतीय पोस्ट ऑफिस था। देश का आंतरिक प्रशासन भारत के पुलिस के जवान चलाते थे और देश की सुरक्षा के लिए भारतीय फौज की एक टुकड़ी भी वहाँ तैनात थी। सब कुछ समाप्त हो गया, जैसे ही कम्युनिस्ट चीन की पिपुल्स लिबरेशन आर्मी तिब्बत में घुस गई। चाउ एन लाई ने पंडित नेहरू को आश्वस्त किया कि तिब्बत की आजादी पहले की तरह ही बनी रहेगी। उसकी स्वायत्तता अक्षुण्ण रहेगी। केवल नाममात्र चीन का अधिकार रहेगा। पंडित नेहरू खून का घूंट पीकर रह गए और देखते ही देखते तिब्बत जो हर दृष्टिकोण से हमारा भाई था, उसे चीन ने हड़प लिया। इसके बाद की भारत और चीन के संबंधों की कहानी सर्वविदित है। 1959 में जब चीन दलाई लामा को कैद कर बीजिंग ले जाना चाहता था तब रातों-रात दुर्गम पहाडिय़ों और जंगलों को अपने अनुयायियों के साथ पैदल पार करके उन्होंने भारत में शरण ली और पंडित नेहरू ने उन्हें राजनीतिक शरण दे दी। तब से भारत और चीन के रिश्ते और भी अधिक बिगड़ गए जिसका परिणाम यह हुआ कि 1962 में चीन ने भारत पर चढ़ाई कर दी जिसमें भारत बुरी तरह पिट गया। तब से 1987 तक भारत और चीन के रिश्ते अत्यंत ही कटु रहे। जब माओ-त्से-तुंग के बाद देंग सत्ता में आए और जब स्वर्गीय राजीव गांधी ने 1987 में चीन की यात्रा की तब दोनों देशों के बीच संबंधों में थोड़ा-सा सुधार हुआ। उसी समय यह फैसला हुआ कि दोनों देशों के विशेषज्ञ भारत और चीन की सीमा तय करेंगे। परंतु तब से आज तक दर्जनों बार बैठकें हुईं परंतु दोनों ओर के प्रतिनिधि यह तय नहीं कर पाए कि भारत और चीन की सीमा कहाँ पर है। चीन से यद्यपि भारत का संबंध सुधरा है। व्यापार भी बढ़ा है परंतु इस बीच चीन ने पाकिस्तान को परमाणु बम और मिसाइल की टेक्नोलोजी देकर भारत का एक बहुत बड़ा शक्तिशाली दुश्मन खड़ा कर दिया। चीनी सेना ने लद्दाख में कई जगहों पर घुसकर चट्टानों को लाल रंग से रंग दिया है, कई स्थानों पर अपने झंडे लगा दिए हैं। इसके वाबजूद हमारी सेना इस बात से इनकार कर रही है। रक्षामंत्री कह रहे हैं कि यह कोई विवादित मुद्दा नहीं है। लद्दाख की सीमाओं पर एकदम शांति है। यह तो सर्वविदित है कि बांग्लादेश को भारत ने ही आजाद कराया था परंतु आज की तारीख में बांग्लादेश भारत का कठोर शत्रु बना हुआ है। आईएसआई के दर्जनों कैंप वहाँ चल रहे हैं और वहाँ के आतंकवादी बिना रोक-टोक, आए दिन भारत में प्रवेश कर रहे हैं। देश में आज स्थित यह है कि करोड़ों की संख्या में बंग्लादेशी अवैध गतिविधियोंं में लिप्त हैं जिनमें नकली नोटों की कालाबाजारी सबसे प्रमुख है। बर्मा को चीन ने हड़प लिया और हम कुछ नहीं कर सके। 40 के दशक तक बर्मा भारत का अंग था और आज भी उसके साथ हमारे गहरे सांस्कृतिक संबंध हैं परंतु बर्मा अब पूरी तरह चीन के कब्जे में है और निकट भविष्य में वह चीन के शिकंजे से बाहर निकल भी नहीं पाएगा। चीन हमारे उत्तर-पूर्व के राज्यों के विद्रोहियों को अस्त्र-शस्त्र और पैसे की पूरी तरह मदद कर रहा है, भारत के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद करने के लिए। इसलिए व्यापार में चाहे हमारा संबंध चीन से मजबूत हो गया हो, राजनीति में चीन हमारा दुश्मन ही बना रहेगा। संभवत उसकी मंशा यही है कि एशिया में उसके अलावा कोई अन्य देश सुपर पावर न रहे।दक्षिण में श्रीलंका में जिस तरह का गृहयुद्ध चल रहा है उससे ऐसा लगता है कि भारत तमिलों या गैर तमिलों का पक्ष नहीं ले पाएगा। यह बात सही है कि लिट्टे के नाराज होने के कारण ही उसने स्वर्गीय राजीव गांधी की हत्या कर दी। अत: श्रीलंका से हम दोस्ती की कोई उम्मीद नहीं कर सकते हैं। हाल में नेपाल चुनाव में माओवादियों का जिस तरह का वर्चस्व हो गया और जिस तरह से माओवादियों के नेता प्रचंड यह कहते हुए सुने गए कि वह 1950 की भारत नेपाल संधि की समीक्षा करेंगे और उन सभी करारों को कूड़ेदान में डाल देंगे जिसके कारण नेपाल से भारत का निकटतम संबंध था, एक खतरनाक संदेश है। आज तक अपने हितों की पैरवी के लिए आक्रमक रूख अपनाते नहीं देखा गया। कश्मीर का प्रश्न हो या आतंकवाद का मुद्दा या इसी तरह का कोई अन्य मसला हमारी इसी कमजोरी के चलते हम अकसर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर गच्चा खाते रहे हैं। जब कभी हम अपना रौद्र रूप दिखाने की कोशिश करते हैं तो हमारे धूर्त पड़ोसी शांतिवार्ता के नाम पर हमे छल लेते हैं। ऐसे में हमें अतीत से सबक लेकर इसी बात को सुनिश्चित करना चाहिए कि फिर हमारी कमजोरी हमारे भविष्य को कलंकित ना कर दे।अन्य राष्ट्रों के बीच हमारी छवि कुछ कमजोर और दब्बू देश की है, जो अपने हितों पर ढुलमुल सा रवैया अपनाता है। समस्या हमारी विदेश नीति में छुपी है। हमें कभी भी राष्ट्रीय हितों को लेकर उग्र नीति अपनाने वाले देशों मे नहीं गिना गया है। अपने हितों पर भी ढुलमुल सा रवैया अपनाता है। अब हम बात करते हैं अपने देश के अंदर के शत्रुओं की। इनमें प्रमुख है आतंकवाद, नक्सलवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद और भ्रष्टाचार। भारत पिछले कुछ वर्षों से आतंकवादियों की जद में रहा है।
देश में आतंकी घटनाओं के लिए हम और हमारे राजनेता पाकिस्तान और बांग्लादेश को भले ही दोष देते रहें लेकिन यह बात भी हमें जाननी होगी कि इन देशों के तथाकथित आतंकवाद को पनाह हमारे देश में ही मिलती रही है। इसके लिए हमारी सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था दोषी है। क्योंकि धर्म और समाज के नाम पर यहां हो रहे दुराव के कारण लोग हिंसक होते जा रहे हैं और बाहरी तत्वों की हाथ की कठपुतली बन उन्हें पनाह दे रहे हैं। देश में शायद ही कोई ऐसी आतंकी घटना घटी हो जिसमें भारत के किसी नागरिक की भूमिका संदिग्ध नहीं रही हो। पहले आतंकवाद के लिए केवल इस्लामिक लोगों को ही जिम्मेदार माना जाता था लेकिन कुछ ऐसी घटनाएं भी सामने आई हैं जिसमें हिन्दू आतंकवाद का चेहरा भी सामने आया है। आतंकवादी चाहे कोई भी हो वह तो देश का दुश्मन ही है। रही बात नक्सवाद की तो यह आज देश की सबसे बड़ी समस्या बन गया है। अभी हाल ही में नक्सलियों ने पहले दंतोवाड़ा में सुरक्षाबलों पर हमला बोल 76 जवानों को शहीद कर दिया और उसके बाद एक बस को बारूदी सुरंग से उड़ाकर सुरक्षा कर्मियों सहित 50 लोगों को मौत के घाट उतार दिया। अभी यह जख्म भरा भी नहीं की 28 मई की आधीरात को पश्च्मि बंगाल के मिदनापुर में रेल्वे पटरी को बम ब्लास्ट से उड़ाकर बड़ी रेल दुर्घटना के अंजाम दिया जिसमें करीब 150 लोगों की मौत हो गई। इतना कुछ होने के बाद केन्द्रीय गृह मंत्री वामपंथी आतंकवादियों को देश का दुश्मन नहीं मानते है। लोकसभा में दंतेवाड़ा पर चर्चा में गृह मंत्री ने कहा था कि उन्होनें कभी भी माओवादियों के विरुद्ध देश का दुश्मन और युद्ध जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं किया था। माओवादी देश के दुश्मन नहीं है तो फिर किसे देश का दुश्मन कहा जाएगा। माओवादियों की आतंकवादी घटनाओं में मारे गए सुरक्षाकर्मियों की संख्या देश की सीमा पर शहीद होने वालों से भी अधिक है। केन्द्र सरकार में माओवादियों के विरुद्ध संघर्ष में शीर्ष स्तर पर व्यापक मतभेद है। कई मंत्री एवं कांग्रेस पदाधिकारी माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखते है। कांग्रेस के शीर्ष स्तर पर चल रहे सत्ता संघर्ष के कारण आतंकवाद के विरुद्ध अभियान ढीला पड़ रहा है। माओवादी आतंक को केवल राज्य सरकारों का उत्तरदायित्व बताना इस गंभीर समस्या की अनदेखी होगा। माओवादी आतंक देश की अखण्डता को दी गई गंभीर चुनौती है। इसका मुंह तोड़ जवाब देना होगा। संप्रग सरकार के कुछ प्रमुख नेताओं की माओवादियों के प्रति सहानुभूति के कारण ही विगत 6 वर्षो में माओवादी सशक्त बन कर उभरे है। यह समय की मांग है कि केन्द्र सरकार माओवादियों के विरुद्ध सशस्त्र सैन्य बलों का प्रयोग करें एवं उन्हें पूर्ण रुप से ध्वस्त करें। माओवादियों के साथ वार्ता एवं सहानुभूति देश हित के विरुद्ध होगी। यह तथ्य अब पूरी तरह साफ हो गया है कि हमारी लड़ाई देश के भीतर के दुश्मनों से ही है। यह दुश्मन दिनोंदिन दुस्साहसिक होता जा रहा है।यहां सवाल यह नहीं है कि आतंकवादी किसके इशारे पर काम कर रहे हैं। यह समय सोच-समझ कर कोई नई नीति तय करने का है। देश की मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों को एक लकीर तय करनी होगी और कहना होगा कि इससे आगे बढऩे की जुर्रत न हो। तदर्थवाद से काम नहीं चलेगा क्योंकि यह पाकिस्तान की आत्मा को बचाने की लड़ाई है। धार्मिक-राजनीतिक पार्टियों को भी अपना पक्ष साफ तौर पर लोगों के सामने रखना होगा। नक्सलवाद हमारे देश में एकाएक नहीं बढ़ गया, आतंकवाद का भी विस्तार अचानक नहीं हुआ और यदि इनके परिणामों को देखकर क्षेत्रवाद को भी नहीं रोका गया तो वह दिन दूर नहीं जब इस समस्या से भी जनता को सरकारों को दो-चार होना पड़ेगा। नक्सलवाद और आतंकवाद की शुरुआत कुछ स्वार्थपूर्ति के कारण हुई जिसे समय-समय पर हवा देकर चर्चा में बनाये रखा गया। आज जब हालात हमारी पहुँच से बाहर हो चुके हैं तो हम इसके परिणामों की चर्चा कर उनके समाधान की बात खोज रहे हैं। एक पल को यदि विचार किया जाये तो आपको क्या लगता है कि करोड़ों रुपये के बजट वाले ऐसे संगठन अब किस गरीब के हित के लिए संघर्ष कर रहे हैं? किस धर्म, मजहब के लिए लड़ाई कर रहे हैं? किस क्षेत्र में अपने अस्तित्व, व्यक्तित्व के लिए लड़ रहे हैं?ऐसा कदापि प्रतीत नहीं होता कि इन संगठनों की मंशा स्वयं को अथवा उससे जुड़े लोगों को लाभ पहुँचाने की है। हमारी नजर में ये वे संगठन हैं जो किसी मजबूरी के कारण भले ही बनते हों किन्तु ताकत और धन का उपयोग और उसका वर्चस्व देखकर ये बजाय अपने अधिकारों के स्वार्थसिद्धि के लिए उसका प्रयोग करने लगते हैं। आखिर सत्ता सुख किसे बुरा लगता है? धन का सुख किसे बुरा लगता है? यहाँ भी अपने तरह की एक अलग राजनीति चलती रहती है। इस राजनीति में देश की राजनीति करने वाले भी कहीं गहरे तक जुड़े होते हैं। इन दो वादों को याद करते हुए महाराष्ट्र में चलाये जा रहे क्षेत्रवाद को भी ध्यान रखना होगा क्योंकि यही वे स्थितियाँ हैं जिन पर नियंत्रण नहीं रखा गया तो कल को क्षेत्रवाद भी देश के लिए घातक रूप ले लेगा। इन सबके अलावा भ्रष्टाचार भी देश का दुश्मन साबित हो रहा है। जनोपयोगी योजनाओं के पैसे को अफसरों में हड़पने की प्रथा-सी हो गई है। जिसके कारण आम लोगों में असंतोष की भावना फैल रही है वहीं अफसरों के घरों में आयकर विभाग के छापे के बाद खाने के बर्तन और बिस्तरों पर नोटों की गड्डियां निकल रही है। लेकिन जनता करे भी तो क्या करे, क्योंकि वह तय नहीं कर पा रही है कि देश का असली दुश्मन कौन है?
बाहरी और भीतरी शत्रुओं से जूझ रहे इस देश को बचाने के लिए कुम्भकर्णी नींद में सोए खुफिया तंत्र कब जागेगा , ऊपरी मन से देशहित की बातें करने वाले राजनेता कब राजनीति के गलियारों से बाहर निकलकर असल में देशहित की बात करेंगे? राजनेताओं को फिक्र है तो बस कुर्सी का, लेकिन कुर्सी मोह में अंधे हुए नेताओं को कौन समझाए कि जब जनता है तब तक कुर्सी है। अगर जनता सुरक्षित नहीं तो सिंहासन नहीं। देश के रहनुमाओं देशहित में सोचो, नहीं तो देश में लगी आग आपके दामन को भी जला डालेगी।

1 टिप्पणी:

  1. अभी तो देश का असल अर्थ भी खोजना शेष है। भारत के चंद अरबपति, चंद नेता और चमचे ही देश हैं तो फिर देश का असली शत्रु तलाश करने का कोई अर्थ नहीं। कहीं ये ही तो देश के असली दुश्मन नहीं?

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