भारतीय संसद पर आक्रमण के मामले में फांसी की सजा प्राप्त किए हुए अफजल गुरु को अभी तक फांसी के तख्ते से बचाए रखने के पीछे केन्द्र की कांग्रेस सरकार की क्या रणनीति है यह तो वही जानती होगी लेकिन संसद हमले में मौत की सजा पाए आतंकवादी अफजल गुरु की दया याचिका संबंधी फाइल को दिल्ली सरकार ने केंद्र को सौंप ही दिया। बावजूद यह कि इस विषय पर जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की मासूमियत सचमुच चौंका देने वाली है। उनका कहना है कि जब फांसी की सजा प्राप्त अन्य अपराधियों की दया याचिकाएं लम्बित पडी हैं तो अफजल गुरु को ही फांसी क्यों दी जा रही है।
उमर अब्दुल्ला उमर में इतने छोटे भी नहीं है कि उनके सामान्य ज्ञान को नाकाफी मानते हुए उनके इस बयान को दरकिनार कर दिया जाए। और न ही अफजल गुरु अन्य प्रकार के साधारण अपराधी हैं जिनकी गणना तिहार जेल में बंद अन्य कैदियों के समान ही की जाए। दरअसल, लोगों के भारी दबाव के चलते केन्द्र सरकार ने पिछले दिनों दिल्ली की सरकार से पूछा था कि अफजल गुरु की दयायाचिका की क्या स्थिति है? दया की यह याचिका दिल्ली सरकार के पास पिछले चार सालों से लम्बित पड़ी थी। जब मीडिया में यह खबर आयी कि केन्द्र सरकार ने ऐसी चिट्ठी शीला दीक्षित की सरकार को लिखी है तो एक बारगी तो शीला जी ने चिट्ठी मिलने से स्पष्ठ इनकार ही कर दिया। लेकिन जब मीडिया के लोगों ने इसके प्रमाण दे दिए तो दिल्ली सरकार ने माना कि केन्द्र की चिट्ठी उन्हें मिल गयी है और उन्होंने अफजल गुरु की दया याचिका की फाईल दिल्ली के उपराज्यपाल तेजेन्द्र खन्ना को भेज दी है।
उसकी दया याचिका पर दिल्ली सरकार की राय जानने में केंद्र सरकार को करीब चार वर्ष लग गए। दिल्ली के उप राज्यपाल तेजिंदर खन्ना ने फाइल को गृह मंत्रालय को भेज दिया है। मुंबई हमले के दोषी अजमल कसाब को जब मौत की सजा सुनाई गई तो अफजल गुरु को फांसी देने में देरी का मामला उछला। इस प्रकरण में गृह मंत्रालय ने उसकी दया याचिका संबंधी फाइल को लटकाए रखने का दोषी दिल्ली सरकार को ठहराते हुए पिंड छुड़ा लिया। बाद में फाइल लटकाए रखने को लेकर शीला दीक्षित सरकार की काफी किरकिरी हुई, तब जाकर फाइल आगे सरकी। दिल्ली सरकार ने अपनी सशर्त टिप्पणी के साथ संसद हमले के दोषी अफजल गुरु की फांसी की सजा की सिफारिश की। फिर फाइल उप राज्यपाल खन्ना के यहां गई। उन्होंने अपनी आख्या के साथ इसे गृह मंत्रालय भेज दिया है। इस फाइल के निस्तारण के लिए केंद्र ने राज्य सरकार को 16 रिमाइंडर भेजे थे। दया याचिका संबंधी फाइल को गृह मंत्रालय को भेज दिया है। अब आगे की कार्रवाई केंद्र सरकार को करना है। बहरहाल वापस विषय पर आते हैं जैसा कि तेजेन्द्र खन्ना अपने मित्रों में तेजी से काम करने के लिए विख्यात हैं। यह अलग बात है कि उनकी यह ख्याति केवल अपने मित्रों में ही है। उन्होंने तुरन्त फाईल को निपटाते हुए उसे वापस दिल्ली सरकार के पास भेज दिया। लोगों में आशा बंधी कि अब शायद, देशद्रोह के मामले में फांसी प्राप्त अफजल गुरु को फांसी दे दी जाएगी। परन्तु ऐशा कुछ नहीं था तेजेन्द्र खन्ना ने तो दिल्ली सरकार से यह पूछा था कि इस प्रकार की स्थिति में कानून व्यवस्था की क्या हालत होगी और उससे कैसे निपटा जाएगा?
तब इस मोड़ पर उमर अब्दुल्ला प्रकट हुए। उन्होंने गुस्सा प्रकट किया कि अफजल गुरु को फांसी देने के लिए इतना हल्ला क्यों मचाया जा रहा है। दरअसल, अब्दुल्ला परिवार को बहुत सी चीजें धीरे-धीरे समझ में आती हैं। कई बार मो इसमें अनेकों वर्ष लग जाते है। उमर अब्दुल्ला के दादा शेख अब्दुल्ला को यह समझने में कुछ दशक लग गए थे कि जम्मू कश्मीर भारत में आता है न कि पाकिस्तान में। और वह स्वतंत्र देश भी नहीं है। फारुख अब्दुल्ला जो आजकल केन्द्र सरकार के मंत्री है अभी तक बीच-बीच में गुस्से में पूछ लेते हैं कि हम कश्मीरी पाकिस्तानी हैं या भारतीय, यह स्पष्ट होना चाहिए। अब उमर अब्दुल्ला को यदि यह नहीं समझ आ रहा कि अफजल गुरु को फांसी देने की मांग क्यों की जा रही है तो यह उनका दोष नहीं है।
विरासत का कुछ अंश तो व्यक्ति के हिस्से में आता ही है। लेकिन इसका एक दूसरा कारण भी हो सकता है। शायद, उमर दिल्ली के उपराज्यपाल के उस प्रश्न का अप्रत्यक्ष उत्तर दे रहे हों जो उन्होंने कानून व्यवस्था के बारे में पूछा है। संकेत स्पष्ट है कि आप दिल्ली में तो कानून व्यवस्था संभाल लोगे लेकिन कश्मीर में क्या होगा इसकी कल्पना कर लीजिए। यह एक प्रकार से धमकी या ब्लैकमेलिंग द्वारा अफजल गुरु की फांसी रुकवाने की उसी रणनीति का हिस्सा है जिसके तहत दिल्ली सरकार के पास चार सालों से पड़ी दया याचिका एक इंच भी नहीं सरकी। क्या इसे भी संयोग ही कहा जाए कि केन्द्र में भी कांग्रेस की सरकार है, दिल्ली में भी कांग्रेस की सरकार है और कश्मीर में भी कांग्रेस की साझा सरकार है।
अफजल गुरु को फांसी देने के बजाय इस मौके पर उसको इस षडय़ंत्रनुमा ढंग से उठाने का एक और कारण भी हो सकता है। 26/11 के मुम्बई आक्रमण के सिलसिले में कसाब को भी फांसी की सजा हो गयी है। केन्द्र सरकार शायद, उसे भी अफजल गुरु की पंक्ति में ही खडे करना चाहती होगी। इसलिए, कानून व्यवस्था के स्थिति पर प्रश्न उठाने शुरु कर दिए हैं और उमर अब्दुल्ला जैसे लोगों को आगे करके कश्मीर में होने वाली प्रतिक्रिया के संकेत देने भी प्रारम्भ कर दिए हैं। इसका अर्थ तो यह हुआ कि कल न्यायालय भी किसी अपराधी को सजा देने से पहले सरकार से पूछना शुरु कर दे कि इससे उत्पन्न कानून व्यवस्था की स्थिति से निपटा नही जा सकेगा या नहीं?
दरअसल, केन्द्र सरकार अफजल गुरु और कसाब की फांसी की सजा को कानून व्यवस्था की स्थिति से जोडकर देखना चाह रही है या फिर एक समुदाय में इन फांसियों से होने वाली प्रतिक्रिया के साथ जोड़कर। उमर अब्दुल्ला जा कह रहे हैं, उनके बयान की यही एक व्याख्या बनती है। वैसे तो उमर से यह भी पूछा जा सकता है कि अफजल गुरु या कसाब की फांसी से कश्मीर में या कश्मीर से बाहर के मुसलमानों में नकारात्मक प्रतिक्रया क्यों होगी? क्या अफजल गुरु इस देश के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते हैं या फिर वे मुसलमानों के रोल मॉडल हैं?
देश का आम मुसलमान तो शायद उनको अपना रोल मॉडल नहीं मानता। लेकिन जिनकी रोजी-रोटी ही मुसलमानों की राजनीति से चलती है वे ऐसे अपराधियों को मुसलमानों के सिर पर कलगी की तरह सजाना चाहते हैं। इस राजनीति में एक दूसरे से आगे बढने की होड़ लगी हुई है। बिहार के नीतिश बाबू किसनगंज में अलीगढ मुस्लिम युनिवर्सिटी खोलकर यह खेल रहे हैं बंगाल के कामरेड अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों को राशनकार्ड और पहचानपत्र मुहैया करके वही काम कर रहे हैं। कांग्रेस की तो सारी राजनीति ही सोरहाबुद्दीनों और अफजल गुरुओं की रक्षा करने पर आधारित है। उमर अब्दुल्ला इसी राजनीति के बल पर कश्मीर में तो अपनी गद्दी सुरक्षित कर ही लेना चाहते हैं क्योंकि इस लड़ाई में उनकी टक्कर मु्फ्ती परिवार से है जो आतंकवादियों को भी मासूम बताता है।
अफजल गुरु को लेकर की गयी राजनीति उमर अब्दुल्ला से लेकर मनमोहन सिंह को बरास्ता शीला दीक्षित कटघरे में खड़ा करती है। उमर अब्दुल्ला तो शायद फिर भी बच जाएं क्योंकि कश्मीर में उनसे यह प्रश्न पूछने वाला कोई नहीं है। जो पूछ सकते थे उन्हें वहां की सरकार ने पहले ही भगा दिया है। जम्मू लद्दाख के लोगों द्वारा पूछे गए प्रश्नों का जवाब देना अब्दुल्ला अपनी जिम्मेदारी नहीं मानते। लेकिन मनमोहन सिंह और शीला दीक्षित अपने गले में लटक रहे इस प्रश्न का भार कितनी देर तक संभाल पाएंगे?
घटना क्रम
1, 18 दिसंबर 2002, को अफजल को फांसी की सजा ट्रायल कोर्ट द्वारा सुनाई गई थी।
2, 29 अक्टूबर 2003 को हाईकोर्ट ने इस सजा को बरकरार रखा।
3, सुप्रीम कोर्ट ने भी 4 अगस्त 2005 को अफजल गुरू की फांसी की सजा बरकरार रखी।
4, 4 जनवरी 2006 को अफजल की दया याचिका की फाइल दिल्ली सरकार के पास पहुंची।
5, फाइल को लेकर 16 रिमाइंडर गृह मंत्रालय ने दिल्ली सरकार को भेजे।
6, 17 मई 2010 को मुख्यमंत्री ने गृह मंत्रालय से पत्र न मिलने की बात कही।
7, 18 मई को मुख्यमंत्री का यू टर्न, कहा फाइल राजभवन भेज दी गई है।
8, राजभवन ने 18 मई की शाम को ही कुछ स्पष्टीकरण को लेकर फाइल दिल्ली सरकार को वापस की।
उमर अब्दुल्ला तो इतने भोले हैं, कि उन्हें ये भी नहीं पता कि यासीन मलिक और गिलानी जैसे लोग आतंकवादी हैं और भारत विरोधी हैं…
जवाब देंहटाएंवैसे उमर अब्दुल्ला, राहुल गाँधी के बहुत अच्छे दोस्त हैं… स्वाभाविक है भाई…
A traitor , nothing else !
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