पंकज शुक्ल
विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों हैं बराबर दोषी
कहते हैं कि दर्द का हद से गुजर जाना दवा बन जाना होता है। लगता है कि भोपाल के गैस पीडि़तों के दुखों के साथ भी यही हो रहा है। 25-26 साल के इंतजार के बाद जो फैसला आया है, उसे सबने 'कमजोरÓ, 'अन्यायÓ, 'छोटा फैसला बताया है। लेकिन उस फैसले ने ही जो बहस छेड़ी है और इस पूरे मुद्दे को जिस तरह से राजनीतिक-सामाजिक एजेंडे के केंद्र में ला दिया है, उससे आगे बेहतर नतीजा आने की संभावना दिखने लगी है। भोपाल में घटित विश्व की सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी के विश्वासघात की महाकथा का खलनायक और 15 हजार से अधिक लाशों का सौदागर कौन है इसका भी खुलासा हो जाएगा। प्रख्यात फोटो ग्राफर रघु राय की माने तो भोपाल की अदालत में न्याय नहीं खेल हुआ है और कहीं न कहीं 15 हजार लोगों की लाशों के साथ सौदा किया गया है।
1984, दो / तीन दिसंबर को हुई भोपाल गैस त्रासदी की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि लगभग आठ लाख की आबादी वाले शहर भोपाल को देखते-देखते गैस चैंबर में तब्दील करने वाली अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड के आला अफसरों के साथ-साथ मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह, उनके मंत्रिमंडल के सहयोगियों तथा राज्य के बड़े-बड़े नौकरशाहों के भी हाथ जनता के खून से रंगे हुए हैं। तीसरी दुनिया के देशों को अपनी चारागाह बनाने वाले मौत के सौदागर अमरीकी साम्राज्यवादियों की मुनाफाखोरी को बढ़ाने के लिए इनके अनुग्रह पर पलने वाले मंत्रियों और अफसरों की सुविधालोलुपता ने बेगुनाहों को मौत के घाट उतार दिया। इस दुर्घटना में न तो किसी मंत्री या अधिकारी अथवा उसके किसी रिश्तेदार की, यह पिट्स विमान दुर्घटना जैसा कोई हादसा भी नहीं था जिसमें गांधी-नेहरू परिवार का कोई व्यक्ति मारा गया हो। सत्ता के शिखर पर बैठे लोगों को जनता के खून पसीने से तैयार सुरक्षा कवच हासिल है, इसलिए शताब्दी की इस सबसे दर्दनाक दुर्घटना पर न तो कोई राष्ट्रीय शोक मनाया गया, न सरकारी इमारतों पर लहरा रहे तिरंगे झुकाये गये और न तब सरकार ने अगले पांच वर्षों के लिए जनता को फिक्स्ड डिपॉजिट खाते में जमा कर ऐय्याशी करने के कार्यक्रम ही टाले। पहली नजर में देखा जाए तो भोपाल गैस त्रासदी का जितना दोष वारेन एंडरसन का है उससे कहीं कम दोष तात्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह, मुख्य सचिव ब्रह्मïस्वरूप, कलेक्टर मोती सिंह, एसपी स्वराजपुरी और पायलट अली हसन का नहीं है, क्योंकि एंडरसन को अमेरीका भगाने में इन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
यह आम लोगों की मौत थी, फिर वह 15 सौ हों या 15 हजार या 15 लाख, कोई फर्क नहीं पड़ता। इनकी मौतें अखबार की सुर्खियां ही बन सकीं। सभी काम बदस्तूर जारी रहे। न तो विपक्ष ने इसे राष्ट्रीय मुद्दा बनाया और न सत्तारूढ़ दल के केंद्रीय नेताओं ने हत्यारों की शिनाख्त करने की जरूरत को महसूस किया। अमरीका से आये यूनियन कार्बाइड के अध्यक्ष एंडरसन की गिरफ्तारी और रिहाई भी इतने नाटकीय ढंग से हुई कि सारा मामला अब तक रहस्य में ही लिपटा रह गया।
यह कोई प्राकृतिक दुर्घटना नहीं थी, सरकार की लापरवाही से घटित दुर्घटना थी। इस दुर्घटना के लिए सीधे तौर पर मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह जिम्मेदार थे। क्योंकि उन्हें बार-बार बताया गया था कि कारखाने की सुरक्षा व्यवस्था गड़बड़ है। उन्हें पता था कि अतीत में कई बार ऐसी दुर्घटनाएं हो चुकी हैं। वह जानते थे कि उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों और अफसरों के भाई, भतीजे, रिश्तेदार इस कारखाने में बड़े ओहदों पर हैं और गड़बडिय़ों पर परदा डाल रहे हैं। खुद मुख्यमंत्री इस कारखाने से तरह-तरह की सुविधाएं ले रहे थे लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने न तो उनसे इस्तीफे की मांग की, न उनकी सरकार बर्खास्त की गयी और न उन्हें गिरफ्तार ही किया गया। एक ऐसे अपराध के लिए, जिसमें 15000 से ज्यादा लोग मारे गये हों और 5 लाख से ज्यादा लोग आने वाले दिनों में तिल-तिल कर मरने के लिए अभिशप्त बना दिये गये हों, देश के कानून के मुताबिक सबसे कड़ा दंड दिया जाना चाहिए। लेकिन यह काम न तो कार्यपालिका ने किया और न इसे कोई न्यायालय ही कर सकता और अपराधियों को न्यायालय तक पहुंचाने का काम जिन लोगों को करना था, वे चुनाव में व्यस्त थे।
चुनावों के मौके पर हर छोटी बड़ी घटना में विदेशी हाथ ढूंढने वाले सत्ता और विपक्ष के राजनीतिज्ञों को जनता के खून से तरबतर अमरीकी साम्राज्यवाद का हाथ क्यों नहीं दिखाई दे रहा था? उन्हें क्यों नहीं वे नरभक्षी चेहरे दिखाई दे रहे थे, जो इन खूनी हाथों से मिलने वाली सुविधाओं को बेशर्मी से डकार रहे थे। यह एक अहम सवाल है?
अर्जुन सिंह का अपराध अक्षम्य है। भोपाल को देश की सांस्कृतिक राजधानी का गौरव दिलाने में लीन रहे तथाकथित संवेदनशील मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को इस सवाल का जवाब देना चाहिए कि 26 दिसंबर 1981 से (जब इस कारखाने में जानलेवा फास्जीन गैस के लीक होने की पहली घटना हुई थी) 3 दिसंबर 1984 के बीच कारखाने के अधिकारियों के खिलाफ क्या कार्रवाई की गयी और जनता की सुरक्षा के कौन से उपाय किये गये? उन्हें जनता के सामने स्पष्ट करना चाहिए कि दिसंबर 1982 में एक मंत्री ने राज्य विधानसभा को क्यों यह कहकर गुमराह किया कि यूनियन कार्बाइड कारखाने की जहरीली गैस से किसी भी तरह का नुकसान नहीं है? उन्हें बताना चाहिए कि अमरीकी वैज्ञानिकों के एक दल ने जब उक्त कारखाने की सुरक्षा व्यवस्था पर चिंता व्यक्त की, तो कौन से कदम उठाये गये थे?
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि राजधानी दिल्ली से प्रकाशित प्रमुख राष्ट्रीय दैनिक जनसत्ता ने 16 जून 1984 के अंक में 'भोपाल ज्वालामुखी के मुहाने परÓ शीर्षक से अपने प्रतिनिधि की एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसमें आने वाले खतरों की स्पष्ट चेतावनी थी, लेकिन सरकार ने उस पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। प्रतिनिधि ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था, 'भोपाल अभी 24 नवंबर 1978 के उस दिन को भी भूल नहीं पाया है, जब उसी कारखाने के नेफथाल स्टोर में ऐसी भयानक आग लगी थी कि सारा शहर उस रात सो नहीं पाया था। दस घंटे तक इस आग पर काबू नहीं पाया जा सका था। दसों दमकलों व सैकड़ों लोगों के प्रयासों से इस शहर के लोगों की नींद वापस लौट पायी थी। इस दुर्घटना तक कारखाने में फास्जीन स्टोरेज टैंक नहीं था। विकासशील देशों में विकसित देशों द्वारा खेले जाने वाले खेल में यदि किसी दिन इस तरह की दुर्घटना फिर घट जाती है, तो भोपाल में हो सकने वाली विनाशलीला का बयान करने वाला भी कोई चश्मदीद गवाह बचेगा क्या?Ó
पत्रकार ने अपनी रिपोर्ट में यह आशंका व्यक्त की थी कि सारी चेतावनियों के बावजूद सरकार कोई कदम नहीं उठा सकेगी, क्योंकि उसके निहित स्वार्थ हैं।
रिपोर्ट का एक अंश: ' ऐसा नहीं है कि सरकार यह सब नहीं जानती। हर दुर्घटना के बाद प्रशासन जांच की बात कहकर छुटकारा पा लेता है। मध्यप्रदेश के 'पारदर्शी व्यक्तित्वÓ वाले मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को मुख्यमंत्री निवास के नजदीक श्यामला पहाड़ी पर एकांत में बने कार्बाइड गेस्ट हाउस को उनके निजी उपयोग के लिए दिया जाता रहा है। पिछले वर्ष हुए कांग्रेस के क्षेत्रीय अधिवेशन के समय मुख्यमंत्री के इस प्रिय गेस्ट हाउस में मंत्रियों के ठहरने की व्यवस्था की गयी थी। अधिवेशन के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला यह एक मात्र गैर सरकारी गेस्ट हाउस थाÓ
रिपोर्ट में आगे कहा गया है 'शहर के एक नामी व असरदार चिकित्सक कार्बाइड के चिकित्सा सलाहकार हैं तथा इंका नेता व वकील विजय गुप्त विधि सलाहकार हैं। प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिरीक्षक रामनारायण लागू को कारखाने का सुरक्षा ठेका दिया गया है। राज्य के पूर्व शिक्षा मंत्री नरसिंह राव दीक्षित के भांजे विजय अवस्थी को जनसंपर्क अधिकारी बनाया गया है तो वर्तमान सिंचाई मंत्री दिग्विजय सिंह के भतीजे को भी नवाजा गया है। प्रदेश के सह मुख्यसचिव राजकुमार खन्ना के साले राणा भी वरिष्ठ पद पर आसीन हैं।Ó
उपरोक्त तथ्यों ने मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को भी साम्राज्यवादियों की कृपा पर पलने वालों की कतार में शामिल कर दिया है। दरअसल, उन्होंने खुद भी नहीं सोचा होगा कि दुर्घटना का स्वरूप इतना भीषणतम हो सकता है। उन्होंने सोचा था कि अगर कभी दुर्घटना हुई भी, तो 10-20 लोग मारे जाएंगे। आम आदमी की जिंदगी के प्रति अगर उनका उपेक्षात्मक रवैया न रहा होता तो वे कोशिश करते कि एक भी व्यक्ति न मारा जाए और निश्चय ही यह हादसा नहीं हुआ होता।
लेकिन यह रवैया केवल अर्जुन सिंह का ही नहीं है। प्रधानमंत्री राजीव गांधी से लेकर विपक्षी दलों के नेताओं तक सभी ने यह सतर्कता बरती कि इस दुर्घटना में 'उलझनेÓ से चुनावी कार्यक्रमों में बाधा न पड़ जाए। किसी विपक्षी दल ने यह मांग नहीं की कि चुनावों को स्थगित किया जाए और पीडि़तों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सहायता एवं पुनर्वास कार्यक्रम किए जाएं।
प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि 16 जून '84 को 'जनसत्ताÓ में प्रकाशित स्पष्ट चेतावनी के बावजूद अर्जुन सिंह ने क्या किया? यदि कुछ नहीं किया तो उन्हें हिरासत में क्यों नहीं लिया गया? इतना ही नहीं, 6 दिसंबर को जिस समय समूचा भोपाल मौत की दहशत में डूबा हुआ था, दोपहर बाद अर्जुन सिंह राजीव गांधी के साथ अपनी पार्टी के चुनाव प्रचार के लिए भोपाल से बाहर रवाना हो गये।
यह उचित ही हुआ है कि फैसला आने के तत्काल बाद नए सिरे से अपील करने (केंद्र, राज्य और पीडि़तों की तरफ से संघर्ष करने वालों की ओर से) से लेकर दोषी लोगों को रेखांकित करने का काम बहुत तेजी से हो रहा है। सरकार ने मंत्री समूह बदला है, कानून बदलने की बात कही जा रही है। भोपाल हादसे पर साढे पच्चीस साल बाद आये फैसले के बाद से हादसे दर हादसे घटित हो रहे हैं। पहला हादसा फैसला ही बना, दूसरा हादसा इस आरोप के साथ आया कि तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने तीन करोड़ रुपया लेकर यूनियन कार्बाइड के नान एक्टिंग सीईओ वारेन एण्डरसन को भोपाल से दिल्ली जाने दिया, तीसरा हादसा इस खबर के साथ आया कि अर्जुन सिंह ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उन्हें दिल्ली से जो कहने के लिए कहा गया था उन्होंने वही किया। दिल्ली से उन्हें ऐसा करने के लिए कहा किसने? राजीव गांधी ने? तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने आखिर किस दबाव में अर्जुन सिंह को कहा होगा कि भोपाल गैस त्रासदी के बाद घटनास्थल पर पहुंचे वारेन एंडरसन को सकुशल वापस भेज दो इसे आसानी से समझा जा सकता है। 25 साल पहले जिस दबाव में वारेन एण्डरसन को तत्कालीन प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री ने वारेन एण्डरन को सकुशल वापस भेज दिया क्या आज वह दबाव कम हुआ है या बढ़ा है? भोपाल गैस काण्ड के अपराधियों की खोज करते समय इसी प्वाइंट से खोज शुरू करते हैं।
2-3 दिसंबर की रात खराब हवा ने जिस मिथाइल आइसोसाइनाइट के रिसाव ने हादसे को अंजाम दिया वह हाइड्रोजन साइनाइट से 500 गुना अधिक जहरीली थी। इसका आविष्कार पहले विश्वयुद्ध की देन थी। मिथाइल आइसोसाइनाइट को शून्य डिग्री सेन्टीग्रेट पर प्रिजर्व रखना होता है और संवेदनशीलता इतनी अधिक है कि यह अपने आप विस्फोटित हो सकता है। इतनी जहरीली गैस को भोपाल के यूनियन कार्बाइड कारखाने में निर्मित नहीं किया जाता था बल्कि उसे अमेरिका से आयात किया जाता था। जिस अमेरिका से इसे आयात किया जाता था उस अमेरिका में नियम ऐसा सख्त था कि आधा टन से अधिक मिथाइल आइसोसाइनाइट को एक साथ रखना प्रतिबंधित है। लेकिन भारत में उस वक्त लापरवाही ऐसी कि जिस टैंक से रिसाव हुआ उसमें 67 टन मिथाइल आइसोसाइनाइट रखा हुआ था। निश्चित रूप से यूनियन कार्बाइड की स्थापना के साथ ही इस बात के पुख्ता इंतजाम किये गये थे कि जहरीले रसायन के कारोबार में कंपनी को किसी प्रकार के अवरोध का सामना न करना पड़े। निश्चित रूप से इसके लिए कंपनी ने उस वक्त की समाजवादी आर्थिक व्यवस्था के साथ जमकर खिलवाड़ किया होगा। उदाहरण देखिए. 1 जनवरी 1973 में भारत सरकार ने फेरा कानून को लागू किया और तय किया कि किसी भी कंपनी में 40 प्रतिशत से अधिक विदेशी निवेश फेरा कानूनों का उल्लंघन माना जाएगा। यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन ने भारत सरकार के साथ मिलकर मिथाइल आइसोसाइनाइट का जो कारखाना स्थापित किया उसमें उसने 60 प्रतिशत शेयर अपने पास रखा। इस पृष्ठभूमि में अगर हम भोपाल गैस त्रासदी को देखेंगे तो पायेंगे कि त्रासदी की पृष्ठभूमि जानबूझकर तैयार की गयी। अव्वल तो नियम कानून थे ही नहीं, और अगर कुछ रहे भी होंगे तो उनकी अनदेखी करना अधिकारियों और नेताओं ने अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझा क्योंकि कोई अमेरिकी कंपनी भारत सरकार के साथ मिलकर कोई कारखाना स्थापित कर रही थी। लेकिन दुर्घटना के 25 सालों बाद भी क्या परिस्थितियां बदल गयी है? जिन परिस्थितियों में उस वक्त यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन को इस बात के असीमित अधिकार दिये गये कि वह हादसे की हद तक लापरवाही बरत सकता है क्या आज कंपनियों को उससे अधिक अधिकार नहीं मिले हुए हैं? उस वक्त भी जब कंपनी के नान एक्टिंग सीईओ वारेन एण्डरसन को पता चला कि हादसा हुआ है तो हादसे के चार दिन बाद 7 दिसंबर को वे मुंबई होते हुए भोपाल पहुंचते हैं। उस वक्त प्रत्यक्षदर्शी आज बयान दे रहे हैं कि जब एंडरसन हवाई अड्डे पर पहुंचा तो उसके हाथ एक ब्रीफकेश और एक गैस मास्क था। हवाई अड्डे से ही एंडरसन श्यामला हिल्स स्थित यूनियन कार्बाइड के गेस्ट हाउस पहुंचते हैं और उन्हें चार घण्टे के लिए गिरफ्तार किया जाता है। उनके ऊपर धारा 304 ए, 304, 120 बी और 429 के तहत मामला दर्ज किया गया। जिन धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज किया गया उसमें उन्हें पुलिस जमानत नहीं दे सकती थी लिहाजा गेस्ट हाउस में ही मजिस्ट्रेट को बुलाया गया और उन्हें जमानत दे दी गयी। इसके बाद मुख्यमंत्री कार्यालय की ओर से उन्हें राज्य सरकार का विशेष विमान मुहैया कराया गया और वे दिल्ली चले गये। और कुछ देर नार्थ ब्लाक के आस पास टहलने के बाद अपने विशेष विमान से वे अमेरिका रवाना हो गये। इन सारी परिस्थितियों के बीच क्या आप वारेन एण्डरसन को अपराधी मान सकते हैं? अगर वारेन एण्डरसन अपराधी थे तो फिर वे भोपाल क्यों गये? आखिर प्रधानमंत्री कार्यालय और मुख्यमंत्री सचिवालय नहीं चाहता तो क्या वारेन एंडरसन जो कि खुद चलकर भोपाल गये थे, वहां से भाग सकते थे? निश्चित तौर पर अमेरिकी प्रशासन ने भारत सरकार के तत्कालीन प्रधानमंत्री पर दबाव डाला होगा और अपने एक महत्वपूर्ण नागरिक को सकुशल वापस आने के लिए कहा होगा। अमेरिका का ऐसा करना आश्चर्यजनक नहीं है और न ही एंडरसन को राक्षस कह देने से गुस्सा खत्म हो जाता है। क्या राजीव गांधी, अर्जुन सिंह और तत्कालीन नौकरशाही इसके लिए जिम्मेदार नहीं है? एंडरसन तो अपराध बोध में भोपाल गया था, फिर वहां से उसे निरपराध मानकर बाहर निकलने का अपराध किसने किया? आज पच्चीस साल बाद क्या अमेरिका का दबदबा भारतीय प्रधानमंत्री कार्यालय से खत्म हो गया है?
अगर ऐसा नहीं हुआ है तो न तो एंडरसन को गाली देने से भोपाल का पाप मिटता है और न ही अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड को दोषी कह देने से कहानी खत्म हो जाती है। यह हमारे लाखों नागरिकों की जिन्दगी का सवाल था जो किसी भी एंडरसन की इकलौती जिंदगी से ज्यादा कीमती थी। अगर अमेरिका अपने एक नौकर को बचाने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय तक को इस्तेमाल कर लेता है तो उस प्रधानमंत्री कार्यालय पर हम कब लानत भेजेंगे तो ताजा ताजा बिछी 15 हजार लाशों से गुजरकर उस एंडरसन को बाहर जाने देता है। इस घटनाक्रम के बाद पिछले पच्चीस सालों में जो कुछ हुआ वह लाशों पर की गयी भद्दी राजनीति है जो इस देश में बार-बार की जाती है। मामला अदालत में गया तो भारत सरकार खुद ही पीडि़तों की पक्षधर हो गयी जो कि खुद यूनियन कार्बाइड की एक हिस्सेदार थी। नौ साल पहले अमेरिका की ही दूसरी केमिकल कंपनी डाउ केमिकल्स यूनियन कार्बाइड को खरीद लेती है और हमारे देश के एक और महान उद्योगपति रतन टाटा उसकी सिफारिश करते हुए प्रधानमंत्री को पत्र लिखते हैं। भोपाल फैसले के बाद जो मंत्रीसमूह गठित किया गया है उसके मुखिया बनाये गये हैं पी चिदम्बरम। पिछली यूपीए सरकार में जब वे वित्तमंत्री थे तो उन्होंने प्रधानंत्री को डाउ केमिकल्स की सिफारिश करते हुए पत्र लिखा था। तर्क यह कि डाउ केमिकल्स ने यूनियन कार्बाइड का जो अधिग्रहण किया है उसमें भोपाल संयत्र शामिल नहीं है। अब तो वह यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन अस्तित्व में ही नहीं है जिसे अपराधी मानकर फैसला सुनाया गया है। जो मंत्रीसमूह गठित किया गया है उसमें औद्योगिक घरानों के हिमायती हैं इसलिए वे इस फैसले के बारे में क्या राय देंगे इसे समझने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए, और जब तक हाइकोर्ट में अपील की जाएगी, सुनवाई दोबारा शुरू की जाएगी अगले दस पंद्रह साल और गुजर जाएंगे और तब तक तो वारेन एंडरसन भी शायद न रहें और वे लोग भी जिन्हें दो-दो साल की सजा देकर मामले का अपराधी का ठहरा दिया गया।
अब आप किसे दोषी मानेंगे? किससे न्याय की उम्मीद करेंगे? जो मर गये वे तो तर गये जो आज भी भोपाल का दंश झेल रहे हैं वे कौड़ी दो कौड़ी पाकर ही अपना दुख दर्द कम कर लेना चाहते हैं और मान लेना चाहते हैं कि वे दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं लेकिन यह लोकतंत्र खास लोगों और खास देशों की सेवा में इतनी गंभीरता से तल्लीन है जो नागरिकों में भी अमीर-गरीब का भयानक भेदभाव करती है। अब भी आप यही मानेंगे कि एंडरनसन और यूनियन कार्बाइड दोषी है? अगर वे दोषी हैं तो उन्हें यह अपराध करने का मौका किसने दिया? फैसला आपको करना हो तो किसे ज्यादा सख्त सजा देंगे?
चूंकि तब केंद्र और राज्य, दोनों में कांग्रेस का शासन था- इसलिए आरोपों से घिरी कांग्रेस बचाव के साथ इस दाग को धोने के लिए तत्पर लगती है। और दोष निर्धारण में स्पष्टत: उसके दो खेमे आमने-सामने आ गए हैं। एक केंद्र को-अर्थात तब की राजीव गांधी सरकार को दोषी बता रहा है, तो दूसरा राज्य सरकार को। पर भोपाल गैस कांड का कुसूर सिर्फ एंडरसन को छोडऩा नहीं है- इसमें काफी सारे मुद्दे जुड़े हैं, जो अभी तक चल रहे हैं। गैस पीडि़तों की तीसरी पीढ़ी भी लाचार पैदा हो रही है, तो अब भी यहांं की मिट्टी-पानी में जहर की मात्रा काफी है। इस बीच कंपनी बिक चुकी है और मुकदमों की धारा बदली जा चुकी है। अंतरिम मुआवजा लिया जा चुका है। फिर अकेले यूनियन कार्बाइड ही नहीं है- जहरीला कचरा छोडऩे और प्रदूषण बढ़ाने वाली कंपनियों की भरमार होती गई है। पर न तो औद्योगिक सुरक्षा कानून बदला है, न दुर्घटना की जवाबदेही का कानून। उलटे परमाणु संयंत्रों की दुर्घटना की जिम्मेदारी वाला जो विधेयक आया है, वह भोपाल से भी बदतर हादसों के लिए उलटी जवाबदेही तय करता है। सो इस फैसले का प्रभाव कई मुद्दों पर पडऩे के साथ गैस पीडि़तों को न्याय दिलाने की तरफ जाए, तो इसमें अचरज की बात नहीं होगी।
वारेन एंडरसन की रिहाई के मामले में राजीव गांधी का नाम आ जाने से कांग्रेस सांसत में पड़ गई है और संकेत ये मिल रहे हैं कि अर्जुन सिंह जब भी बोलेंगे तो कहेंगे कि उनके पास तो पीवी नरसिंह राव का फोन आया था। राजीव गांधी भी बच जाएंगे और नरसिंह राव भी अब दुनिया में नहीं हैं इसलिए उनका बचाव कौन करेगा?
जब गैस हादसा हुआ था तो मध्य प्रदेश के जनसंपर्क निदेशक सुदीप बनर्जी हुआ करते थे। अर्जुन सिंह के सबसे करीबी अधिकारियों में उनकी गिनती होती थी। बाद में जब अर्जुन सिंह मानव संसाधन विकास मंत्री बने तो शास्त्री भवन में सुदीप बनर्जी सबसे ताकतवर अधिकारी थे। रिटायरमेंट के फौरन बाद कैंसर से उनका निधन हो गया मगर जनसंपर्क निदेशक की हैसियत से सुदीप बनर्जी ने पूरी दुनिया के पत्रकारों को जानकारी दी थी कि, कि एंडरसन को तत्काल भारत छोड़ देने का आदेश दिया गया था क्योंकि उसके भारत में रहने से गंभीर भावनाएं भड़क सकती थी और सरकार को नहीं लगता था कि उसका भारत में रहना जरूरी है। बनर्जी ने कहा था कि एंडरसन के दायित्व को देखते हुए उनकी गिरफ्तारी करने से कानून का पालन हो गया है और हमने उन्हें रिहा इसलिए किया है क्योंकि उन पर मुकदमा चलाने का हमारा कोई इरादा नहीं हैं। अब इसका अर्जुन सिंह क्या जवाब देंगे? बनर्जी ने तो यह भी कहा था कि दिल्ली से ओैर खासतौर पर प्रधानमंत्री राजीव गांधी की ओर से एंडरसन को रिहा करने के लिए कभी कोई दबाव नहीं पड़ा। यानी अर्जुन सिंह अब जो कहने वाले है वह अपने अधिकारियो से पहले ही कहलवा दिया था। अर्जुन सिंह से ज्यादा दूर तक देखने वाला राजनेता शायद ही कोई हो?
अब सवाल यह आता है कि भोपाल गैस हादसा कोई मामूली छत गिर जाने या गाड़ी की टक्कर हो जाने जैसा मामूली हादसा नहीं था। पूरी दुनिया में इसे ले कर हाहाकार मचा था। ऐसे में एक पल के लिए मान भी लिया जाए कि राजीव गांधी की जानकारी के बगैर एंडरसन को अर्जुन सिंह ने भाग जाने का मौका दिया और उन्हें पता भी नहीं चला तो यह तो उनके प्रधानमंत्री होने की योग्यता पर ही सवाल खड़ा करता है। राजीव गांधी के प्रधान सचिव रहे और राष्ट्रपति बनते-बनते बच गए पी सी एलेक्जेंडर पहले बोले की राजीव गांधी को निजी तौर पर सारी जानकारी होगी प्रधानमंत्री कार्यालय में इस तरह का कोई दस्तावेज या निर्देश नहीं आया था। राजीव गांधी के सबसे करीबी दोस्तों में से एक रहे अरुण नेहरू भी कहते हैं कि अर्जुन सिंह की इतनी हिम्मत नहीं थी कि राजीव गांधी से आदेश लिए बगैर एंडरसन जैसे बड़े अभियुक्त को छोड़ सके। अरुण नेहरू और राजीव गांधी के बीच दूरियां काफी बढ़ गई थी और बाद में तो अरुण नेहरू भारतीय जनता पार्टी के सदस्य भी बन गए। वहां भी उनकी राजनीति ज्यादा नहीं चली। लेकिन राजीव गांधी की सरकार में सबसे ताकतवर वे माने जाते थे और वे अगर राजीव गांधी को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं तो इससे ज्यादा साफ प्रमाण और कोई नहीं हो सकता। अब सबको अर्जुन सिंह के बोलने का इंतजार हैं और अर्जुन सिंह इस मौके का काफी आनंद ले रहे हैं। दिग्विजय सिंह अमेरिका में बैठे हैं और वहीं से बयान दे रहे हैं कि अर्जुन सिंह इस मामले में कतई अकेले जिम्मेदार नहीं हैं।
7 जून को भोपाल की अदालत के फैसले के बाद यह तो तय हो गया कि सीबीआई ने इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया। इसके पीछे वास्तविकता क्या है वह तो उजागर होने में समय लगेगा। लेकिन इस मामले को लेकर जिस तरह भाजपा घडिय़ाली आंसू बहाकर सहानुभूति लूटने की कोशिश कर रही है उससे उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा उजागर हो रही है। क्योंकि केन्द्र और राज्य में सरकार होने के बावजूद भी कभी भी इस सरकार ने इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया। वरना आज आरोप प्रत्यारोप का दौर चलने की बजाए दोषियों को कड़ी सजा मिल गई होती।
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