हमारे यहां हत्या के किसी भी दोषी को आजन्म कारावास, या फांसी देने की व्यवस्था है, खाप पंचायतों के बेरहम फैसलों पर सिर्फ गुस्सा आता था और आता है तो भोपाल की अदालत ने छब्बीस साल पुरानी दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना के गुनहगारों पर जो फैसला सुनाया है उस पर तो किसी का भी मन भोपाल के ताल में डूब मरने का करता है। सरकारी घोषणाओं और सरकार से जुड़ी एजेंसियों और अस्पतालों के रिकार्ड पर जाएं तो 1984 की तीन दिसंबर की रात को यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से निकलने वाली मिथाइल फाइसो साइनेट गैस से मरने वालों की संख्या चार से पांच हजार के बीच है। इसके अलावा लाखों लोग वे हैं जो मरे नहीं है मगर जो दशा उनकी हुई है, उसमें दिन रात मरने की कामना करते हैं। इन लोगों को पहले मुआवजा देने में तमाम तरह के कानूनी धर्म संकट आये और फिर जब तक मुआवजा मिला तब तक और बहुत सारे लोग मर चुके थें। इस गैस का असर खत्म करने के लिए सोडियम थायो सल्फेट का इंजेक्शन भोपाल में कम पड़ गया था औऱ क्योंकि इस त्रासदी में कोई महामहिम नहीं मारा गया इसलिए जहाजों से न दवा भोपाल पहुंचाई गयी और अगर पूरे देश में कम पड़ रही थी तो आयात की गयी। उसके बाद भी मुख्य अपराधी का अता-पता नहीं और जो पकड़ में आए भी वह मौत के सौदागर पच्चीस साल के लंबे इंतजार के बाद दो साल की मामूली सजा पाएं और सिर्फ पच्चीस मिनट में जमानत पर मुक्त कर दिये जाएं, यह तो त्रासदी की पीड़ा से कराहती जनता की भावनाओं के साथ न्याय के नाम पर किया गया क्रूर मजाक ही है। जिन आरोपियों के हाथ हजारों लोगों के खून से रंगे हों, जिनकी वजह से लाखों लोगों की जिंदगी दोजख सी बन गई हो, जिन्हें फांसी देने की बददुआ गैस त्रासदी की हर बरसी पर गूंजती रहती हो, उन्हें इस फैसले से मिली राहत जहां मानवता के लिए शर्म का सबब बन गई है वहीं अब तक यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि आखिर यहां किसे मिले न्याय?
चार दिसंबर उन्नीस सौ चौरासी को यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वारेन एंडरसन को भोपाल के पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था मगर धाराएं इतनी कमजोर लगाई गयीं की तुरंत पच्चीस हजार रुपये में जमानत हो गयी। जमानत के दस्तावेजों ने एंडरसन ने कसम खायी थी की वे जब भी बुलाया जाएगा हाजिर होंगे मगर अब कई बार वारंट जा चुका है औऱ एंडरसन अमेरिका के एक द्वीप पर बुढ़ापा बिता रहे हैं। उनके खिलाफ जितने सम्मन गये शुरू मे तो स्वीकार भी किए गये मगर फिर अमेरिका सरकार ने ही भारत सरकार को लिखकर दे दिया कि आपका अपराधी और हमारा नागरिक पता बदल चुका है। भारत सरकार ने पहली बार फरवरी उन्नीस सौ पचासी में सवा तीन अरब डॉलर का मुआवजा अमेरिका की एक अदालत में यूनियन कार्बाइड से मांगा।
अमेरिकी जहां देना पड़ता है वहां बहुत चालाक होते हैं। फिलहाल अमेरिका सरकार डेविड कोलमेंन हेडली को भारतीय टीम के सामने तो पेश कर रही है मगर साथ में यह कानून भी जोड़ दिया है कि जिस सूचना से अमेरिकी सरकार का अहित होता है वह भारत को नहीं दी जाएगी। इसी लिए हेडली को सलाह देने के लिए अमेरिकी एफबीआई का वकील हमेशा रहता है। मगर इसी देश के कानून ने कहा कि जब हादसा भारत में हुआ है और भोपाल में हुआ है तो सुनवाई भी भारत यानी भोपाल की अदालतों में होनी चाहिए । अमेरिकी सुविधावाद का यह एक उदाहरण है जिसमें हम तब भी कैद थे और आज भी कैद हैं। एटमी करार के दौरान एटमी जिम्मेदारी बिल का प्रावधान है मगर उसमे ये भी कहा गया है कि अगर अमेरिका द्वारा दिए गया एटमी इंधन से किसी किस्म का हादसा होता है तो पांच सौ करोड़ रुपये का भुगतान भारत की सरकार करेगी। मतलब मरेंगे भी हम और आप औऱ पैसा भी हमारे और आपके जेब से जाएगा।
वारेन एंडरसन एक कातिल के तौर पर भारत का भगौड़ा है। इस बात पर सिर्फ आश्चर्य ही होता है कि एंडरसन को वापस लाने की कभी कोई गंभीर कोशिश नहीं की गयी। दाउद इब्राहीम पर तो ज्यादा से ज्यादा तीन सौ चार सौ लोगों की मौत का इल्जाम है मगर वारेन एंडरसन तो एक रात में हजारों लोगों के मरने औऱ लाखों के बर्बाद हो जाने का जिम्मेदार है। इसके प्रति इतनी प्रचंड रियायत क्यों ? क्या इसलिए कि जल्दी ही खुली अर्थव्यवस्था का आगाज हो चुका था और हम पूरी दुनिया को यह संदेश देना चाहते थे कि हम उद्योगपतियों और निवेशकों के साथ, अपने नागरिकों की कीमत पर ही सही, कितना रियायत बरतते हैं।
फरवरी उन्नीस सो नवासी में यूनियन कार्बाइड औऱ भारत सरकार के बीच अदालत से बाहर एक सौदा हुआ औऱ भोपाल के सारे शोक की कीमत चार करोड़ सत्तर लाख डॉलर लगाई गयी जो यूनियन कार्बाइड ने भारत सरकार को सौंप भी दी। भारत सरकार को दिल्ली से भोपाल तक यह पैसा पहुंचाने में तीन साल लग गये फिर भी इसका एक ही हिस्सा पहुंचा जिसका एक हिस्सा भोपाल के कुछ असली औऱ कुछ फर्जी गैस शिकारों को मिला। उन्नीस सौ बानवे में ही वारेन एंडरसन को फरार घोषित किया गया औऱ इतना सनसनीखेज कानूनी मामला चल रहा था फिर भी यूनियन कार्बाइड मेकलोड रसेल नाम की कोलकात्ता की एक कंपनी को बिक गयी। इस
कंपनी का नाम पहली औऱ आखिरी बार सुना गया था। उन्नीस सौ निन्यान्वे में एक औऱ कमाल ये हुआ कि यूनियन कार्बाइड को दुनिया की सबसे रसायन बनाने वाली कंपनियों में से एक अमेरिका की डो जोंस ने खरीद लिया। अब आपको समझ में आ रहा होगा कि वारेन एंडरसन पर अमेरिका का रक्षा कवच क्यों मौजूद है।
2001 में जब एनडीए सरकार थी तब तो यूनियन कार्बाइड ने घोषित ही कर दिया कि जो पैसा उसने मुआवजे के तौर पर दिया है, उसे इंसानियत की खैरात मान लिया जाय वरना यूनियन कार्बाइड नहीं मानता की इस मामले में वह दोषी है। वारने एंडरसन को भारत वापस लाने के लिए आखिरी सम्मन अमेरिकी सरकार के जरिए भारत ने 2003 में दिया था। सात साल से भारत सरकार खामौश है। आज का फैसला न न्याय की जीत है और न इस हादसे के शिकारों के लिए राहत की कोई बात है। कुछ अभियुक्त तो स्वर्ग सिधार चुके हैं। ज्यादातर सत्तर से ऊपर उम्र के हैं। केशव महेंद्रा तो पचासी के हो गये औऱ अभी ये सिर्फ जिला अदालत का फैसला है। हाइकोर्ट से होते हुए सुप्रीम कोर्ट और फिर जरुरी हुआ तो समीक्षा बेंच के सामने अपील होगी औऱ दो साल अधिकतम की ये सजा का वक्त इसी में बीत जाएगा। भोपाल को न्याय नहीं मिला। भोपाल को एक ऐसा अभिशप्त अन्याय मिला है जिसने दर्द को फिर जिंदा कर दिया है। इस अन्याय के लिए हमसब जिम्मेदार हैं। धाराएं तय करने वाले, मुआवजे की राजनीति करने वाले, अमेरिका पर एंडरसन को सौंपने में लापरवाही बरतने वाले और देश के वे सब नागरिक जो खिड़कियों से आग की लपटे देखते हैं। अदालत के सामने जो रखा गया था फैसला उसी पर आया है मगर सवाल ये है कि अदालत के सामने पूरा सच क्यों नहीं रखा गया।
त्रासदी से फैसले तक का सफर
2-3 दिसंबर 1984: यूनियन कार्बाइड इंडिया लि. (यूसीआईएल) के कारखाने से जहरीली मिक गैस का रिसाव। मृतकों की संख्या 15,274 जबकि 5,74,000 प्रभावित।
4 दिसंबर : यूनियन कार्बाइड के अध्यक्ष वारेन एंडरसन समेत नौ लोग गिरफ्तार। एंडरसन जमानत पर रिहा।
फरवरी 1985 : भारत सरकार ने अमेरिकी अदालत में पेश किया 3.3 अरब डॉलर मुआवजे का दावा।
दिसंबर 1987 : एंडरसन व अन्य आरोपियों के खिलाफ चार्जशीट दायर।
फरवरी 1989 : यूनियन कार्बाइड और भारत सरकार के बीच कोर्ट के बाहर समझौता। कार्बाइड ने बतौर मुआवजा दिए 47 करोड़ डॉलर। पीडि़तों ने किया समझौते का विरोध।
1992 : कार्बाइड से मिली मुआवजे की रकम का कुछ हिस्सा पीडि़तों में वितरित।
फरवरी 1992 : एंडरसन भगोड़ा घोषित।
अगस्त 1999 : यूनियन कार्बाइड का डॉउ कैमिकल्स के साथ विलय।
नवंबर : ग्रीन पीस ने कारखाने के आसपास किया जमीन, भू-जल आदि का परीक्षण। परीक्षण से कई कैमिकल्स की मात्रा बेहद खतरनाक हद तक पहुंचने की बात साबित।
जनवरी 2001 : यूनियन कार्बाइड ने किया यूसीआईएल की जिम्मेदारी लेने से इनकार।
19 जुलाई 2004 : सुप्रीम कोर्ट ने दिया पीडि़तों को 15 अरब रुपए से अधिक मुआवजा देने का आदेश।
26 अक्टूबर : यूनियन कार्बाइड से मिली मुआवजे की बकाया रकम बांटने का आदेश सुप्रीम कोर्ट से जारी।
7 जून 2010 : भोपाल की एक अदालत ने आठ लोगों को दोषी करार दिया।
aaj ka kaanon andha hi nahin bahra bhi hai
जवाब देंहटाएंyahi hai humare desh ki nyay prakriya
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