शनिवार, जुलाई 31, 2010

बिकाऊ है मध्यप्रदेश, बोलो खरीदोगे

मध्यप्रदेश सरकार जिस तरह से प्रदेश की बेशकीमती जमीनों और पुरातत्व महत्व की जमीनों को कौडिय़ों में निजी हाथों में सुपुर्द कर रही है उससे ऐसा लगता है कि चंद वर्षों में यहां जनता का नहीं बल्कि बिल्डरों और पूंजीपतियों का अधिपत्य होगा। भले ही प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सनसनीखज और उत्तेजक बयानों ने प्रदेश की राजनीति में तूफान ला दिया हैं जिसमें उन्होंने भूमाफियाओं पर उन्हें हटाने के लिये धन इक_ा करने का खुलासा कर सबको हक्का बक्का कर दिया है। वहीं सदन के भीतर भूमाफियाओं को चुनौती देने की शिवराज की दंभ भरी हुँकार से लोग सन्न हैं। विरोधियों को चुनौती देने के लिये उन्होंने संसदीय मर्यादाओं को बलाये ताक रखकर जिस भाषा शैली का इस्तेमाल किया, उसका उदाहरण प्रदेश के इतिहास में शायद ही मिले। मुख्यमंत्री भूमाफियाओं पर उन्हें हटाने के लिये धन इक_ा करने का आरोप लगा रहे हैं, मगर भाजपा सरकार की कामकाज की शैली पर नजर डालें, तो राज्य सरकार खुद ही भूमाफियाओं के सामने नतमस्तक नजर आती है। ऐसे में सिर्फ यही कहा जा सकता है कि अपनी जेब टटोल कर मध्यप्रदेश की कीमत बताईए क्योंकि मध्यप्रदेश बिकाऊ है।

शिवराज के सत्तारुढ़ होने के बाद से मंत्रिपरिषद के अब तक लिये गये फैसले सरकार की शैली साफ करने के लिये काफी हैं। हर चौथी-पाँचवीं बैठक में निजी क्षेत्र को सरकारी जमीन देने के फैसले आम है। सदन में भूमाफियाओं पर दहाडऩे वाले मुखिया का मंत्रिमंडल जिस तरह के फैसले ले रहा है, उससे उद्योगपतियों, नेताओं और भूमाफिया ही चाँदी कूट रहे हैं। एक तरफ सरकारी जमीनों को कौडिय़ों के भाव औद्योगिक घरानों के हवाले किया जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ बड़े बिल्डरों को फायदा पहुँचाने के लिये नियमों को तोड़ा मरोड़ा जा रहा है। सरकार के फैसले से नाराज छोटे बिल्डरों को खुश करने के लिये भी नियमों को बलाए ताक रख दिया गया है। यानी सरकार नेताओं को चंदा देने वाली किसी भी संस्था से नाराजगी मोल नहीं लेना चाहती ।

सरकारी कायदों की आड़ में जमीनों के अधिग्रहण का खेल पुराना है, लेकिन अब मध्यप्रदेश में हालात बेकाबू हो चले हैं। मिंटो हॉल को बेचने के कैबिनेट के फैसले ने सरकार की नीयत पर सवाल खड़े कर दिये हैं। मध्य प्रदेश सरकार सूबे की संपत्ति को अपनी मिल्कियत समझकर मनमाने फैसले ले रही है। मालदारों और रसूखदारों को उपकृत करने की श्रृंखला में अब बारी है भोपाल की शान मिंटो हॉल की, जिसे निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। स्थापत्य कला के नायाब नमूने के तौर पर सीना ताने खड़ी नवाबी दौर की इस इमारत का ऐतिहासिक महत्व तो है ही, यह धरोहर एकीकृत मध्यप्रदेश की विधान सभा के तौर पर कई अहम फैसलों की गवाह भी है। सरकारी जमीन लीज पर देने का अपने तरह का यह पहला मामला होगा। राज्य सरकार की प्री-क्वालीफिकेशन बिड में चार कंपनियाँ रामकी (हैदराबाद), सोम इंडस्ट्री (हैदराबाद) जेपी ग्रुप (दिल्ली) और रहेजा ग्रुप (बाम्बे) चुनी गई हैं। इनमें से रामकी ग्रुप बीजेपी के एक बड़े नेता के करीबी रिश्तेदार का है। यूनियन कार्बाइड का कचरा जलाने का ठेका भी इसी कंपनी को दिया गया है। जेपी ग्रुप पर बीजेपी की मेहरबानियाँ जगजाहिर हैं।

भोपाल को रातोंरात सिंगापुर, पेरिस बनाने की चाहत में राज्य सरकार कम्पनियों को मनमानी रियायत देने पर आमादा है। इतनी बेशकीमती जमीन कमर्शियल रेट तो दूर, सरकार कलेक्टर रेट से भी कम दामों पर देने की तैयारी कर चुकी है। ऐसा लगता है कि सरकार किसी उद्योगपति को लाभ पहुंचाने के लिए नियमों को अपने हिसाब से बना रही है। कलेक्टर रेट पर भी जमीन की कीमत लगभग 117.25 करोड़ है, जबकि 7.1 एकड़ के भूखंड की कीमत महज 85 करोड़ रुपए रखी गई है। शहर के बीचोबीच राजभवन के पास की इस जमीन की सरकारी कीमत सत्रह करोड़ रूपए प्रति एकड़ है। यहाँ जमीन का कामर्शियल रेट कलेक्टर रेट से तीन गुना से भी अधिक है। कीमत कम रखने के पीछे तर्क है कि उपयोग की जमीन मात्र साढ़े पांच एकड़ है। इतना ही नहीं 1.2 एकड़ में बने खूबसूरत पार्क को एक रूपए प्रतिवर्ष की लीज पर दिया जाएगा, जिसका उपयोग संबंधित कंपनी पार्टियों के साथ ही बतौर कैफेटेरिया भी कर पायेगी।

सरकार की मेहरबानियों का सिलसिला यहीं नहीं थमता। उद्योगपतियों को लाभ देने के लिए 85 करोड़ की राशि चौदह साल में आसान किश्तों पर लेने का प्रस्ताव है। पहले चार साल प्रतिवर्ष ढ़ाई करोड़ रूपए सरकार को मिलेंगे, जबकि पांचवे साल से सरकार को 14.90 करोड़ रूपए मिलेंगे। इस दौरान कंपनी सरकार को राशि पर महज 8.5 फीसदी की दर से ब्याज अदा करेगी। इतनी रियायतें और चौदह साल में 85 करोड़ रूपए की अदायगी का सरकारी फार्मूला किसी के गले नहीं उतर रहा है। सरकार मिंटो हॉल को साठ साल की लीज पर देगी, जिसे तीस साल तक और बढ़ाया जा सकता है। गौरतलब है कि गरीबों और मध्यमवर्गियों को मकान बनाकर देने वाला मप्र गृह निर्माण मंडल अपने ग्राहकों से आज भी किराया भाड़ा योजना के तहत 15 फीसदी से भी ज़्यादा ब्याज वसूलता है। इसी तरह पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर मप्र पर्यटन विकास निगम ने महज 27 हजार 127 रुपए की सालाना लीज पर गोविंदगढ़ का किला दिल्ली की मैसर्स मैगपी रिसोर्ट प्रायवेट लिमिटेड के हवाले कर दिया है। इस तरह करीब 3.617 हेक्टेयर में फैले गोविंदगढ़ किले को हेरिटेज होटल में तब्दील करके सैलानियों की जेब हल्की कराने के लिये कंपनी को हर महीने सिर्फ 2 हजार 260 रुपए खर्च करना होंगे। उस पर तुर्रा ये कि निगम के अध्यक्ष बड़ी ही मासूमियत के साथ कंपनी का एहसान मान रहे हैं, जिसने कम से कम किला खरीदने की हिम्मत तो की। वरना कई बार विज्ञापन करने के बावजूद कोई भी कंपनी किले को खरीदने में दिलचस्पी नहीं दिखा रही थी ।

यहां यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि मुफ्त का चंदन घिसने में मुख्यमंत्री किसी से पीछे नहीं हैं। जमीनों की रेवडिय़ाँ बाँटने में उनका हाथ काफी खुला हुआ है। पिछले छह सालों में केवल भोपाल जिले में सेवा भारती सहित कई सामाजिक और स्वयंसेवी संगठनों को करीब 95 एकड़ जमीन दे चुके हैं। इसमें वो बेशकीमती जमीनें शामिल नहीं हैं, जिन पर मंत्रियों और विधायकों से लेकर छुटभैये नेताओं के इशारों पर मंदिर, झुग्गियाँ तथा गुमटियाँ बन चुकी हैं। राजधानी के कमर्शियल एरिया महाराणा प्रताप नगर से लगी सरकारी जमीन पर बसे पट्टेधारी झुग्गीवासियों को बलपूर्वक खदेड़ दिया गया था। जमीन खाली कराने के पीछे प्रशासन का तर्क था कि सरकार को इसकी जरुरत है। विस्थापन के लिये सरकार ने झुग्गीवासियों को वैकल्पिक जगह दी और उनके विस्थापन का खर्च भी उठाया। बाद में मध्यप्रदेश गृह निर्माण मंडल के दावे को दरकिनार करते हुए बीजेपी सरकार ने बेशकीमती जमीन औने-पौने में दैनिक भास्कर समूह को भेंट कर दी। आज वहाँ डीबी मॉल सीना तान कर बेरोकटोक जारी सरकारी बंदरबाँट पर इठला रहा है। हाल ही में इस मॉल के प्रवेश द्वार में तब्दीली के लिये कैबिनेट के फैसले ने एक बार फिर व्यावसायिक परीक्षा मंडल को अपना आकार सिकोडऩे पर मजबूर कर दिया । तमाम विरोधों को दरकिनार करते हुए कई पेड़ों की बलि देकर बेशकीमती जमीन डीबी मॉल को सौंप दी गई। करीब पाँच साल पहले भोपाल विकास प्राधिकरण ने भी एक बिल्डर पर भी इसी तरह की कृपा दिखाई थी। सरकारी खर्च पर अतिक्रमण से मुक्त कराई गई करीब पाँच एकड़ से ज़्यादा जमीन के लिये बिल्डर को कई सालों तक आसान किस्तों में रकम अदायगी की सुविधा मुहैया कराई थी। इसी तरह राजधानी भोपाल के टीनशेड, साउथ टीटीनगर क्षेत्र के सरकारी मकानों को जमीनदोज कर जमीन कंस्ट्रक्शन कंपनी गैमन इंडिया के हवाले कर दी गई।

सरकार के कई मंत्री और विधायक शहरों की प्राइम लोकेशन वाली जमीनों पर रातों रात झुग्गी बस्तियाँ उगाने, शनि और साँईं मंदिर बनाने के काम में मसरुफ हैं। नेताओं की छत्रछाया में बेजा कब्जा कर जमीनें बेचने वाले भूमाफिय़ा पूरे प्रदेश में फलफूल रहे हैं। भाजपा के करीबियों ने कोटरा क्षेत्र में सरकारी जमीन पर प्लॉट काट दिये। गोमती कॉलोनी के करीब चार सौ परिवार नजूल का नोटिस मिलने के बाद अपने बसेरे टूटने की आशंका से हैरान-परेशान घूम रहे हैं। असली अपराधी नेताओं के संरक्षण में सरकारी जमीनों को लूटकर बेच रहे हैं। आलम ये है कि सरकार की नाक के नीचे भोपाल में करोड़ों की सरकारी जमीनें निजी हाथों में जा चुकी है। कई मामलों में नेताओं और अफसरों की मिलीभगत के चलते सरकार को मुँह की खाना पड़ी है ।

राज्य सरकार ने काफी मशक्कत के बाद भोपाल के मास्टर प्लान को रद्द करने का निर्णय लेने का मन बनाया। नगर तथा ग्राम निवेश संचालनालय ने राज्य शासन को नगर तथा ग्राम निवेश की धारा 18 (3) के तहत प्लान को निरस्त करने का प्रस्ताव भेज दिया है। शहरों में जमीन की आसमान छू रही कीमतों और बढ़ते शहरीकरण के मद्देनजर आवास एवं पर्यावरण विभाग ने टाउनशिप विकास नियम-2010 का प्रारूप प्रकाशित कर दिया है। ऊपरी तौर पर सब कुछ सामान्य घटनाक्रम दिखता है, लेकिन पूरे मामले की तह में जाने पर सारी धाँधली साफ हो जाती है । टाउनशिप विकास नियम-2010 के प्रकाशन से पहले भोपाल के मास्टर प्लान को रद्द करने की मुख्यमंत्री की घोषणा की टाइमिंग भूमाफियाओं से सरकार की साँठगाँठ की पोल खोल कर रख देती है। सरसरी तौर पर टाउनशिप विकास नियम-2010 में कोई खोट नजर नहीं आती, लेकिन प्रारूप में एक ऐसी छूट शामिल कर दी गई है, जिससे शहरों के मास्टर प्लान ही बेमानी हो जाएँगे। मास्टर प्लान में कई नियमों से बँधे कॉलोनाइजरों और डेवलपरों के लिये स्पेशल टाउनशिप नियम राहत का पैगाम है। राज्य सरकार ने टाउनशिप नियमों का जो मसौदा तैयार किया है, उसमें स्पेशल टाउनशिप को मंजूरी देने के लिए मास्टर प्लान के नियम बाधा नहीं बनेंगे। जहां भी मास्टर प्लान का क्षेत्र होगा, यदि वहां उक्त प्रस्ताव के नियमों और मास्टर प्लान के नियमों में विरोधाभास हुआ तो टाउनशिप के नियम लागू होंगे। इस तरह राज्य सरकार ने स्पेशल टाउनशिप के जरिये मास्टर प्लान से भी छेड़छाड़ की छूट दे दी है।

राज्य सरकार सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक संस्थाओं के अलावा अब उद्योगपतियों पर भी मेहरबान हो रही है। राजधानी भोपाल,औद्योगिक शहर इंदौर, जबलपुर, ग्वालियर सहित कई अन्य शहरों में तमाम नियमों को दरकिनार कर सरकारी जमीन कौडिय़ों के दाम नेताओं के रिश्तेदारों और उनके चहेते औद्योगिक घरानों को सौंपी जा रही हैं। 23 अप्रैल 2010 के पत्रिका के भोपाल संस्करण में सातवें पेज पर प्रकाशित जाहिर सूचना में ग्राम सिंगारचोली यानी मनुआभान की टेकरी के आसपास की 1.28 एकड़ शासकीय जमीन एस्सार गु्रप को कार्यालय खोलने के लिये आवंटित करने की बात कही गई है। नजूल अधिकारी के हवाले से प्रकाशित इस विज्ञापन में बेहद बारीक अक्षरों में पंद्रह दिनों के भीतर आपत्ति लगाने की खानापूर्ति भी की गई है। टाउनशिप के निर्माण के लिए असीमित कृषि भूमि खरीदने और इस जमीन को कृषि जोत उच्चतम सीमा अधिनियम के प्रावधानों से भी मुक्त करने जैसी बड़ी रियायतें भी देने का प्रस्ताव है। साथ ही टाउनशिप के बीच में आने वाली सरकारी जमीन प्रचलित दरों या अनुसूची(क) की दरों अथवा कलेक्टर की ओर से तय दरों पर पट्टे पर देने का प्रस्ताव भी आगे चलकर किसके लिये मददगार बनेगा,बताने की जरुरत शायद नहीं है। खतरनाक बात यह है कि कृषि भूमि पर भी टाउनशिप खड़ी हो सकेगी। खेती को लाभ का धँधा बनाने के सब्जबाग दिखाने वाले सूबे के मुखिया ने खेती की जमीनों पर काँक्रीट के जंगल उगाने की खुली छूट दे दी है। किसान तात्कालिक फायदे के लिये अपनी जमीनें भूमाफियाओं को बेच रहे हैं। सरकार की नीतियों के कारण सिकुड़ती कृषि भूमि ने धरतीपुत्रों को मालिक से मजदूर बना दिया है। इससे पहले राज्य सरकार हानि में चल रहे कृषि प्रक्षेत्रों, जिनमें नर्सरियाँ और बाबई कृषि फार्म भी निजी हाथों में देने का फैसला ले चुकी है।

प्रारूप के नियमों में हर जगह लिखा गया है कि विकासकर्ता को अपने स्रोतों से ही टाउनशिप में सुविधाएँ उपलब्ध कराना होंगी जिनमें सड़क बिजली एवं पानी मुख्य है । वहीं यह भी जोड़ दिया कि वो चाहे तो इस कार्य में नगरीय निकाय की सहायता ले सकते हैं। नियम में इस शर्त को जोड़कर विकासकर्ता को खुली छूट दी गई है कि वो अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर टाउनशिप का पूरा विकास सरकारी एजेंसी के खर्चे से करवा ले। आवास एवं पर्यावरण विभाग की वेबसाइट पर मसौदे को गौर से पढ़ा जाए तो इसमें शुरू से लेकर आखिर तक सिर्फ बिल्डरों को उपकृत करने की मंशा साफ नजर आती है। विभाग ने अपने ही नियमों को धता बताते हुए इस नए नियम से बड़े कॉलोनाइजरों और डेवलपरों की खुलकर मदद की है। स्पेशल टाउनशिप को पर्यावरण और खेती का रकबा घटने के लिये जिम्मेदार मानने वालों का तर्क है कि शहर के बाहर स्पेशल टाउनशिप बनाने के बजाए पहले सरकार को पुनर्घनत्वीकरण योजना के तहत शहर के पुराने, जर्जर भवनों के स्थान पर बहुमंजिला भवन बनाना चाहिए। अंग्रेजों द्वारा 1894 में बनाये गये कानून की आड़ में सरकारी जमीनों की खरीद फरोख्त का दौर वैसे ही उफान पर है । ऐसे में खेती की जमीनों पर टाउनशिप विकसित करने का प्रस्ताव आत्मघाती कदम साबित होगा। इस प्रस्ताव से कृषि भूमि के परिवर्तन के मामलों में अंधाधुंध बढ़ोतरी की आशंका भी पर्यावरण प्रेमियों को सताने लगी है।

कृषि भूमि का अधिग्रहण कर पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने पर उतारु सरकार सरकारी संपत्ति की लूट खसोट के लिये जनता द्वारा सौंपी गई ताकत का बेजा इस्तेमाल कर रही हैं। अरबों-खरबों के टर्नओवर वाली कंपनियों पर भी शिवराज सरकार की कृपादृष्टि कम नहीं है। इस बात को समझने के लिये इतना जानना ही काफी होगा कि बीते एक साल के दौरान प्रदेश में बड़ी कंपनियों को सरकार 8000 हैक्टेयर से अधिक जमीन बाँट चुकी है। बेशकीमती जमीनें बड़ी कम्पनियों को रियायती दरों पर देने का यह खेल प्रदेश में उद्योग-धँधों को बढ़ावा देने के नाम पर खेला जा रहा है। पिछले एक साल में रिलायंस, बिड़ला समूह समेत 22 बड़ी कंपनियों को करीब 6400 हैक्टेयर निजी भूमि भू अर्जन के माध्यम से दी गई। वहीं 14 ऐसी कंपनियाँ हैं जिन्हें निजी के साथ ही करीब 1640 हैक्टेयर सरकारी जमीन भी उपलब्ध कराई गई है। इनमें भाजपा का चहेता जेपी ग्रुप भी शामिल है । अरबों के टर्नओवर वाली कंपनियों को रियायत की सौगात देने के पीछे सरकार का तर्क है कि इससे लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मिल सकेगा लेकिन अब तक सरकारी दावे खोखले ही हैं ।
 
सरकारी संपत्ति पर जनता का पहला हक है। आम लोगों को अँधेरे में रखकर सरकार पूंजीपतियों के हाथ की कठपुतली की तरह काम कर रही है । नवम्बर 2005 के बाद प्रदेश की भाजपा सरकार के फैसले भूमाफियाओं के इशारों पर नाचने वाली कठपुतली के से जान पड़ते हैं । पिछले छ: दशकों में आदिवासी तथा अन्य क्षेत्रों की खनिज संपदा का तो बड़े पैमाने पर दोहन किया गया है मगर इसका फायदा सिर्फ पूँजीपतियों को मिला है। जो आबादियाँ खनन आदि के कारण बड़े पैमाने पर विस्थापित हुईं, अपनी जमीन से उजड़ीं, उन्हें कुछ नहीं मिला। यहाँ तक कि आजीविका कमाने के संसाधन भी नहीं मिले, सिर पर एक छत भी नहीं मिली और पारंपरिक जीवनपद्धति छूटी, रोजगार छूटा, सो अलग। सरकार को उसकी हैसियत बताने के लिये जनता को अपनी ताकत पहचानना होगा और जागना होगा नीम बेहोशी से।.......क्योंकि जमीनों की इस बंदरबाँट को थामने का कोई रास्ता अब भी बचा है?

1 टिप्पणी:

  1. Pankajji shabd nahi hai aapki tareef karne ke liye mere paas.. sirf MP i nahi pura desh bik raha hai, lekin awaaz uthane wala koi nahi hai. Apka ye lekh padke kum se kum har baat jan to saka, samajh saka ki kya ho raha hai. jald hi ladunga in rishvatkhoro se.
    Dhanyawad.

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