कॉमनवेल्थ गेम्स भारत में पहलीबार और एशिया में दूसरी बार (1998 में मलेशिया की राजधानी कुआलालंपुर में ये खेल हो चुके हैं) हो रहे हैं। 1951 और 1982 में एशियाई खेलों के आयोजनके बाद हम पहली बार इतने बड़े पैमाने पर मल्टी स्पोर्ट्स टूर्नामेंट को आयोजित करने जा रहे हैं। 3-14 अक्टूबर तक नई दिल्ली में होने जा रहे इस आयोजन के साथ देश की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। पर तैयारी का आलम यह है कि अभी स्टेडियम तक तैयार नहीं हैं। ऐसे में राष्ट्रमंडल खेल देश की शान बढ़ाने वाला आयोजन होगा या फिर नाक कटाने वाला?
दिल्ली सरकार के पास कुल 2800 करोड़ रुपए कॉमनवेल्थ के लिए सुविधाएं जुटाने और नए निर्माण करने के लिए उपलब्ध थे। पर यह पता नहीं शीला दीक्षित की सरकार किस तरह काम करती है कि इस रकम की कोई भी जानकारी दिल्ली सरकार के वित्त मंत्री तक को नहीं थी। जब विभिन्न विभागों ने सड़कों से ले कर फ्लाई ओवरों और टेंडरों का भुगतान करने के लिए पैसा मांगा तो इंदौर के रहने वाले और दिल्ली में राजनीति में खासे सफल वालिया के सामने कोई विकल्प नहीं था।
मंत्रिमंडल की बैठक में मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने ही प्रस्ताव किया कि डीजल, रसोई गैस और सीएनजी के दाम बढ़ा दिए जाए तो दिल्ली को चमकाने लायक पैसा आ जाएगा। शीला दीक्षित की पहल पर ही दिल्ली को चमकदार बनाने के लिए लो फ्लोर बसों के एक बड़े बेड़े का आयात किया गया और पाया गया कि इन बसों के इंजन में आग बहुत जल्दी लगती है। मतलब कॉमनवेल्थ जिस समय हो रहे होंगे उस समय दिल्ली की सड़कों पर ये आधुनिक बसें आयातित मानव बम के तौर पर घुमी फिरती दिखाई देंगी। दुर्घटनाओं के तो इतने प्रचंड अवसर हैं कि कॉमनवेल्थ खेलों की चमक दमक इस आग से और ज्यादा बढ़ जाएगी। लाशे गिरेंगी तो गिरती रहे।
कॉमनवेल्थ फेडरेशन के मुखिया फैनेल को भारत के खेल मंत्री एम एस गिल पत्र लिख चुके है कि वे अपने साथ खिलाडिय़ों और खास तौर पर स्टार खिलाडिय़ों को ले कर आए। दुनिया के स्टार खिलाडिय़ों में से पहले ही बहुत सारे बड़े खिलाडिय़ों ने भारत आने से इंकार कर दिया है मगर फैनेल ने जबाब में लिख कर कहा है कि अगर भारत सरकार और भारत की कॉमनवेल्थ फेडरेशन इन स्टारों के पहले दर्जे के विमान टिकट दे और उन्हें खेल गांव की जगह पांच सितारा होटलों में ठहराने की व्यवस्था करें तो कुछ खिलाड़ी आ सकते हैं।
फैनेल स्वयं जमैका के रहने वाले है जो विकास दर और समृध्दि के मामले में भारत से कतई आगे नहीं है। लेकिन अब कॉमनवेल्थ नाम का झुनझुना फैनेल के हाथ लग गया है तो वे आकार में अपने देश से लगभग अस्सी गुने बड़े भारत की सरकार से भी सवाल कर सकते है। यह सवाल करने की उनकी हैसियत और हिम्मत इसलिए भी है कि भारत ने अपनी परंपरा निभाई है और पूरे सात साल का समय मिलने के बावजूद समय पर काम पूरा कर के नहीं दिया है। भारत को कोई अंतरिक्ष में या बादलों के पार स्टेडियम नहीं बनाने थे। भारत को तो कोशिश करनी थी कि खेलों का जो बना बनाया ढांचा हमारे पास है उसे और अधिक आधुनिक और समकालीन बनाया जाए। आखिर 1982 में एक एशियाड का एक सफल आयोजन हम कर चुके हैं। उस समय राजीव गांधी राजनीति में नहीं होने के बावजूद इस अभियान से जुड़े हुए थे और एशियाड 82 के सफल आयोजन और इसी के साथ साथ भारतीय टेलीविजन के रंगीन होने की कहानी भी आज तक याद की जाती है।
जिन स्टेडियमों में एशियाड हो सकता था उनमें कॉमनवेल्थ जैसे लगभग अपाहिज किस्म के समारोह को आयोजित करने लायक बनाने के लिए कोई आसमान से इंद्र धनुष नहीं तोडऩा था। हालत तो यह है कि भारतीय खिलाड़ी जिन्हें कॉमनवेल्थ में हिस्सा भी लेना है, स्टेडियमों में काम चलने के कारण अपनी तैयारी तक नहीं कर पाए। अब जब भारत को कोई पदक हासिल नहीं होगा और अगर हुआ भी तो कांसे के पदक से आगे हम नहीं जा पाएंगे तो दोष किस पर मढ़ा जा पाएगा। आखिर इन खिलाडिय़ों को न तो क्रिकेट वालों की तरह करोड़ों के विज्ञापन मिलते हैं और न हर साल अरबों की संपत्ति जमा होती है। ये वे खिलाड़ी है जिन्हें खेल के कुछ सार्थक और गौरवशाली क्षणों के बाद वापस अपनी उसी दुनिया में लौट जाना पड़ता है जहां वे दुनियादारी से अपना गुजारा कर रहे हैं।
यहां पर वही पुराना यक्ष प्रश्न फिर उभर कर सामने आता है और इस प्रश्न का उत्तर शायद किसी के पास न हो। पहले भी पूछा जा चुका है कि आखिर यह कॉमनवेल्थ बला क्या है? अंग्रेजों के गुलाम देशों का एक क्लब हैं जिसे एक जमाने में अमेरिका और सोवियत संघ की दादागीरी के समानांतर बचा कर रखा गया था ताकि विकासशील देशों की आवाज सुनी जा सके। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि जिन अंग्रेजों को हमने बहुत संघर्ष और बलिदान के बाद खदेड़ा है वे भारत के खेलों तक पर राज करने लगे हैं। ब्रिटिश महारानी का राजदंड खेलों की पूर्व भूमिका के तौर पर पूरे भारत में घूम रहा है और हम भारतीय जो होली से ले कर रोटरी और लायंस क्लब को समारोह का निमित्त एक ही तरह से मानते हैं, इस राजदंड का स्वागत कर रहे हैं। महारानी को भेजना ही था तो हमारा कोहिनूर भेजती जो उनके मुकुट में लगा है और जो असल में भारत की शान है।
खेल भावना बहुत सार्थक और सकारात्मक भावना हैं लेकिन इस खेल भावना के तर्क के आधार पर आप पूरे देश के सम्मान को और विधान को खेल नहीं बना सकते। कॉमनवेल्थ में जो हो रहा है वह सबके सामने हैं और आयोजन के बाद पोल पट्टी खुलने पर जो होने वाला है वह भी जल्दी ही सबके सामने आ जाएगा। क्या हमने दिल्ली के गरीबों को उस 541 करोड़ रुपए का हिसाब दिया है जिसको गरीबों और अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए रखा गया था और खजांचियों की धांधली की वजह से वह भी कॉमनवेल्थ के उत्सव में खर्च कर दिया गया। क्या कॉमनवेल्थ पर बहस के बहाने इसका भी फैसला नहीं हो सकता कि राजनीति के महारथी खेलों को अपना खेल न बनाए।
दुनिया के कुछ देशों की नजीर और भारत में तैयारी की स्थिति जान कर इस बारे में काफी कुछ अंदाज लगाया जा सकता है कि हम देश में हो रहे कॉमन वेल्थ गेमों के लिए कितने तैयार हैं।
लंदन ओलिंपिक के लिए स्टेडियम तैयार
लंदनमें दो साल बाद (27 जुलाई, 2012 से) होने वाले ओलिंपिक खेलों की तैयारियांलगभग पूरी हैं। पूरा सरकारी तंत्र गंभीरता से जुटा है और इस पर पूरा ध्यानहै कि आयोजन की तैयारियों में भ्रष्टाचार नहीं हो। खेलों के लिए 9.32 बिलियनपाउंड्स (71,500 करोड़ रुपए) का बजट मंजूर किया गया है। कई स्टेडियम अभी से तैयार हो गए हैं। इनमें खिलाडिय़ों ने प्रैक्टिस शुरू कर दिया है।पिछले सप्ताह ही समारोहपूर्वक कुछ स्टेडियम आयोजन समिति को सौंपे गए। याद रहे कि ओलंपिक्स खेलों का आयोजन एशियाड या कॉमनवेल्थ खेलों की तुलना में काफी बड़ा होता है। इसके बावजूद ब्रिटिश प्रशासन अभी से ही तैयारियों को अंतिम रूप देने की स्थिति में आ गया है।
बीजिंग ओलिंपिक- खर्च केवल 20,000 करोड़
बीजिंगमें 2008 में हुए ओलिंपिक का सफलतापूर्वक आयोजन कर चीन ने दुनिया भर में अपना लोहा मनवाया था। 8-24 अगस्त, 2008 के बीच हुए इस आयोजन के लिए 12 नए स्टेडियम तैयार किए गए थे। केवल दो साल पहले हुए ओलिंपिक के लिए 20,000 करोड़ रुपये का बजट था (जबकि दिल्ली में होने जा रहे कॉमनवेल्थ गेम्स का बजट 35 हजार करोड़ रुपये पहुंच चुका है)। इतने में ही भव्य तरीके से सब कुछ संपन्न हो गया। सभी 12 स्टेडियम करीब दो साल पहले तैयार कर लिए गए थे। दूसरी सुविधाएं भी समय पर उपलब्ध हुईं। यहां 204 देशों के 11,028 खिलाडिय़ों ने कुल 302 स्पर्धाओं में हिस्सा लिया था।
दक्षिण अफ्रीका भी रहा आगे
हालही में विश्व कप फुटबॉल की मेजबानी करने वाले दक्षिण अफ्रीका ने भारत के लिए नजीर छोड़ दी। जोहांसबर्ग में यह आयोजन सफलता पूर्वक संपन्न हुआ। इसके लिए वहां पांच नए स्टेडियम बनाए गए थे और पांच पुराने स्टेडियमों को नए सिरे से तैयार किया गया था। आयोजन के लिए कुल बजट 8400 करोड़ रुपए का था। इतने कम पैसे में ही यहां भी करीब डेढ़ साल पहले ही सभी स्टेडियम तैयार कर लिए गए थे। यहां प्रतियोगिता में कुल 32 टीमों ने हिस्सा लिया था।
दिल्ली का हाल खर्चा पूरा, काम कम
दिल्ली में आयोजन के लिए अभी एक-तिहाई से भी ज्यादा काम होना है। यहां तक कि सारे स्टेडियम तैयार नहीं हुए हैं। एक स्टेडियम (तालकटोरा स्टेडियम, जिसका नया नाम एसपी मुखर्जी स्टेडियम है) को तैयार घोषित किया गया, लेकिन पहले ट्रायल में ही स्वीमिंग पूल के टाइल्स निकल जाने की वजह से दो तैराक घायल हो गए। इस पूल को तैयार करने में 377 करोड़ रुपये खर्च लगे थे। दिल्ली सरकार ने तीन साल पहले 770 करोड़ रुपये के बजट के साथ इस आयोजन के लिए काम शुरू किया था। पर वह अब तक 11000 करोड़ रुपये खर्च कर चुकी है। यानी 1,328 फीसदी ज्यादा। कॉमनवेल्थगेम्स, 2010 का मुख्य स्टेडियम जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम है। इन खेलों केट्रैक ऐंड फील्ड इवेंट इसी स्टेडियम में होंगे। यहां करीब 75 हजार दर्शकों के बैठने की क्षमता है। इस स्टेडियम में मुख्य रूप से एथलेक्टिस, लॉन बॉल, वेटलिफ्टिंग जैसी स्पर्धाएं आयोजित की जाएंगी। इस स्टेडियम की मरम्मत हुई है और इसे नए सिरे से सजाया-संवारा गया है। नए सिरे से बने स्टेडियम का उद्घाटन 27 जुलाई को कर दिया गया। लेकिन यह उद्घाटन तय समय से छह महीने बाद हुआ है। मूल योजना के मुताबिक इस स्टेडियम को जनवरी, 2010 में ही तैयार हो जाना था। यहां अब भी काम जारी है, जिसका सीधा मतलब है कि उद्घाटन करना भी महज रस्म अदायगी है क्योंकि अभी स्टेडियम में कई चीजों पर काम चल रहा है।
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