पंकज शुक्ला
आजादी के बाद भले ही अगड़े और पिछड़े की खाई मिटाने के लिए कई कानूनों का निर्माण किया गया है लेकिन अब तक स्वतंत्रता मिलने 63 वर्षों बाद भी इस दंश का जहर समाज से गया नहीं है। आश्चर्य तो तब होता है जब भेदभाव मिटाकर सामाजिक समरसता का दायित्व निभाने का का दावा करने वाली सरकार ही इसे हवा देने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। देश में हिन्दुत्व का झंडा बुलंद करने वाले दल की मध्यप्रदेश सरकार भी जाति के बंधन से अभी निकल नहीं पाई है। समाज में व्याप्त जाति बंधन को तोडऩे के प्रयास के बजाय वह वंश वृक्ष व्यवस्था लागू कर लोगों को जाति याद दिलाने की कोशिश में लगी हुई है। इसके लिए उसने स्कूली बच्चों को चुना है जिनके अभिभावक जाति के जंजाल से बाहर निकलने के लिए बच्चों के नाम के साथ परंपरागत संबोधनों को हटाकर स्कूल में उसकी जाति दूसरे ढंग से लिखने का प्रयास कर रहे हैं। प्रदेश के शिक्षा विभाग के इस एक आदेश ने तमाम सरकारी स्कूलों में पढऩे वाले ऐसे दलित और पिछड़ी जाति के छात्र-छात्राओं को शर्म और संकोच के साथ परेशानी में डाल दिया है जो कि अब अपना कल भूलना चाहते हैं।
मप्र के राज्य शिक्षा केंद्र ने इस शैक्षणिक वर्ष में प्रदेश के सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे विद्यार्थियों का वंश वृक्ष तैयार कराने की व्यवस्था शुरू की है। इसके तहत पहली से आठवी तक के छात्र-छात्राओं को घर, परिवार, मोहल्ले की धरोहरों की जानकारी के अलावा उनके परिवार, भाई-बहन, नाना-नानी के बारे में मौखिक जानकारी ली जा रही है इसके अलावा कक्षा दो से ऊपर के विद्यार्थियों से यह जानकारी अभ्यास पुस्तिका में भी लिखवाई जा रही है। इतना ही नहीं छात्रों को अपनी सात पीढिय़ों की जानकारी संकलित करने को कहा गया है। यहीं नहीं बच्चों को यह जानकारी कक्षा में पढ़कर सुनाना भी है कि मेरे दादा क्या करते थे, मेरी मां दूसरों के घरों में बर्तन मांजने का काम करती है। इसके अलावा यदि कोई बच्चा अब अपने नाम के साथ दीपांकर या रैदास लिख रहा है तो राज्य शासन के आदेश के मुताबिक स्कूल में उसे अपने मास्साब को यह बताना पड़ेगा कि उसके दादा परदादा चमड़े के व्यवसाय में रत थे या हैं। यह जानकारी उस समय मांगी जा रही है जब केंद्र सरकार के साथ न्यायालय भी यह कह चुकी है कि अनुसूचित जातियां एवं अनुसूचित जनजातियां (एसटी, एससी) शब्द, अस्पृश्यों एवं जनजातियों की पहचान के लिए सरकारी दस्तावेजों में प्रयुक्त किए जाने वाले आधिकारिक शब्द हैं। लेकिन 2008 में राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने दलित शब्द लिखना भी प्रतिबंधित माना है। इसके स्थान पर आधिकारिक रूप से अनुसूचित जाति शब्द का इस्तेमाल करने की बात कही गई है। अब जब हम दलित या पिछड़े शब्द का प्रयोग लिखित और मौखिक रूप से नहीं कर सकते हैं तो क्या सामाजिक समरसता का नारा बुलंद करने के बाद बच्चों से वंशानुक्रम की जानकारी लेना कहां तक उचित है? लेकिन मध्यप्रदेश की सरकार स्कूल में पढ़ रहे छात्र-छात्राओं को 20 सदी में प्रचलित होने वाले जाति बोधो दलित और पिछड़े की जगह 18वीं सदी में प्रचलित उन शब्दों की जानकारी लेने की फिराक में है जिसे वर्तमान में गाली का पर्याय माना जाता है। जिन जाति सूचक शब्दों को अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम में प्रतिबंधित किया गया है उन्हीं शब्दों के माध्यम से देश की भावी पीढ़ी की वंशावली तैयार करना कहां तक न्याय संगत माना जा सकता है। अलबत्ता यह सही है कि अपने देश और प्रदेश में जाति प्रथा की जड़ें गहरी हैं और यह हजारों साल पुरानी है। यह नहीं कि इतिहास में इसको समाप्त करने की कोशिश नहीं हुई लेकिन इसके महाप्रयास भी जातीय निष्ठा का कुछ नहीं बिगाड़ सके। यह नहीं कि इस प्रथा का कोई लाभ नहीं हुआ। बलात् हिंसा पूर्वक धर्म परिवर्तन के खूनी अभियानों को बहुत हद तक जाति प्रथा केे जातीय गौरव ने रोका और यह योगदान मामूली नहीं है। लेकिन आज जब हम 21वीं शताब्दी के मुहाने पर खड़े हैं और जिस रूप में यह है, इसमें न कोई गुण नजर आता है और न कोई उपयोगिता। अलबत्ता समाज का वातावरण विषाक्त करने में इसकी भूमिका जरूर नजर आती है। ऊंच नीच के भाव, छुआ छूत इत्यादि के रूप में यह अनर्थकारी साबित हुआ है। जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समता, न्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। जाहिर है कि जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जो अंबेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो। अंबेडकर के जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन आज उत्तर प्रदेश में जो सरकार कायम है, उसके बारे में माना जाता है कि वह अंबेडकर के समर्थकों और उनके अनुयायियों की है। राज्य की मुख्यमंत्री और उनके राजनीतिक गुरू कांशीराम ने अपनी राजनीति के विकास के लिए अंबेडकर का सहारा लिया और आज सत्ता उनके पास है। इस बात की पड़ताल करना दिलचस्प होगा कि अंबेडकर के नाम पर सत्ता का सुख भोग रही सरकार ने उनके सबसे प्रिय सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिया क्या कदम उठाए है। उत्तर प्रदेश की पिछले पंद्रह वर्षों की राजनीति पर नजऱ डालने से प्रथम दृष्टया ही समझ में आ जाता है कि उन्होंने जाति प्रथा के विनाश के लिए कोई काम नहीं किया है। बल्कि इसके उलट वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर है। दलित जाति को अपने हर सांचे में फिट रखने के लिए तो उन्होंने छोड़ ही दिया है अन्य जातियों को भी उनकी जाति सीमाओं में बांधे रखने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चला रही हैं। हर जाति का भाईचारा कमेटियाँ बना दी गई हैं और उन कमेटियों को मुख्यमंत्री की राजनीति पार्टी का कोई बड़ा नेता संभाल रहा है। डाक्टर साहब ने साफ कहा था कि जब तक जातियों के बाहर शादी ब्याह की स्थितियां नहीं पैदा होती तब तक जाति का इस्पाती सांचा तोड़ा नहीं जा सकता। लेकिन यह बात न तो केंद्र की सरकारें मान रही हैं और न ही हिन्दुत्व का नारा देने वाली वह सरकार जिसका शासन मध्यप्रदेश में है।
aapne bahut achhe se apne jazbat vyakt kiye hain..... bahut achhe...
जवाब देंहटाएंMeri nayi kavita : Tera saath hi bada pyara hai..(तेरा साथ ही बड़ा प्यारा है ..)
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