शनिवार, फ़रवरी 20, 2010

सही-गलत धारणाएं

अपने समाज में वनवासी बन्धुओं के सन्दर्भ में विविध प्रकार की धारणाएँ है। अपने आपको पढ़ालिखा, बुद्धिशाली, प्रगतिशील कहनेवाले वनवासी समाज को अनपढ़, गरीब कहें तब तक तो कुछ मात्रा में ठीक कह सकते है। वास्तव में कौन अनपढ़?, कौन निर्धन?, यह भी एक चर्चा का विषय हो सकता है। फिर भी कुछ समय के लिए उसे सही मान ले, तो भी वनवासियों को अनपढ़, गरीब कहते-कहते आगे यदि कोई उन्हें गवांर, असंस्कारी, असभ्य, जंगली और क्या-क्या कह दे, उसका कोई ठिकाना नहीं। सही जानकारी लिये बिना, सुनी सुनाई बातों के आधार पर, वातानुकूलित कक्ष में बैठे-बैठे लिखें साहित्य के आधार पर कई व्यक्ति ऐसी धारणाएँ बना लेते है, तो बड़ा दु:ख होता है। हम जब अपने वनवासी बन्धुओं को मिलने उनकी कुटियाँ में जाते है, तो यह सारा वास्तविकता से कोसो दूर हो ऐसा कभी-कभी लगता है। हमारी संस्कृति में कहा गया है कि सभी दिशाओं से अच्छे विचार मेरी ओर आएँ। हम जीवन में अच्छा जो कुछ हो उसे ग्रहण करे। यह तो उसके लिए है, जिसके मन-मस्तिष्क के द्वार खुले है। इसी आधार पर सोचे तो वनवासी समाज से सीखने जैसा बहुत कुछ है, अपनी तैयारियाँ कितनी है, उस पर निर्भर करता है। ऐसी कई सारी बाते है जो वनवासी जानता है, बड़ी सरलता से सहजता से नित्य जीवनमें प्रयोग करता है, साथ रहने पर कोई भी उसे सीख भी सकता है। फिर भी हम उसे अनपढ़ कहते है। क्यों की वनवासी के गाँव तक आज के वर्तमान समय की लौकिक शिक्षा सम्भवतया पहुंची न हो। केवल लौकिक शिक्षा के आधार पर ही किसी को शिक्षित कहना हो, तो वनवासी समाज को कम पढ़ा लिखा कह सकते है। बाकी यदि सही में किसी को कुछ सीखना है, तो सारा जीवन कम पड़ सकता है। क्योंकी गीत, नृत्य, चित्रकला, साहित्य जैसी अन्य कई सारी बातें है, जिसे आज हम चाहे जितना सीख सकते है। युद्धकला, शस्त्रविद्या में वनवासी निपुण है। कुछ व्यक्ति अपने वनवासी बन्धुओं को अनपढ़ कहते-कहते कई बार गवांर, असंस्कारी भी कह देते है। तब बड़ा दु:ख होता है। ऐसा कहने वालों के प्रति केवल मन की उदारता के कारण यदि कुछ कहना है, तो सिर्फ इतना कह सकते है कि भगवान उन्हें माफ करे, वे क्या कह रहे है, उसका उन्हें ज्ञान नहीं है। बाकी वनवासी समाज को असंस्कारी कहना अर्थात किसी को गाली देने समान है। वनवासी जीवन की ओर देखेंगे, नित्य के व्यवहार की ओर देखेंगे तो ध्यान में आता है की इस भूमी के संस्कार से जीवन समृद्ध है। ''अतिथि देवो भवÓÓ क्या है?, यह तो वो जाने जिन्होंने वनवासी के साथ कभी भोजन किया हो, प्रकृति के साथ रह रहे वनवासी के घर में निवास किया हो। जिसे निर्धन, गरीब कहते है उस वनवासी का मन श्रीमंत कैसा है?, यह एक बार अनुभव कर के तो देखें। स्वयं भूख़ा रह कर घर आए व्यक्ति के लिए रोटी की व्यवस्था करना और वह भी बड़े प्रसन्नता के साथ, यह वनवासी के संस्कारी व्यवहार का प्रमाण है। परिश्रम जीवन का अंग है। धर्म-संस्कृति के प्रति अभिमान और समय आने पर प्राण देने की भी तैयारी इन संस्कारों के प्रमाण अतीत के पन्नों पर कई जग़ह पर पढऩे को मिलते है। एक बार सुदूर वन पहाड़ों में बसे एक गाँव में दिन ढलने के समय एक व्यक्ति का जाना हुआ। घर के सभी प्रतिक्षा करते-करते थक गए और ऐसा मान लिया की आज नहीं सम्भवत: कल प्रात: आएँगे। अत: सभी का भोजन हो चुका था। रात्री विश्राम की तैयारियाँ चल रही थी। ऐसे में ढ़लती सायंकाल के अंधेरे में घर आए व्यक्ति को देख़ सभी को बड़ी प्रसन्नता हुई। हाथ-पाँव धोने के लिए गरम पानी दिया गया। घर में जो कुछ था उसके आधार पर तुरन्त भोजन की व्यवस्था हो गई। वैसे भी तीन-चार घण्टे पैदल चलने के कारण आनेवाले अतिथि को भी बड़ी भूख़ लगी थी। थाली में जो मिला और वो भी बड़े प्रेम के साथ परोसागया, तो भोजन करने में बहुत आनंद आया। रात्री विश्राम के लिए घर में जो एकमेव खट़ीया थी उस पर बिस्तर की व्यवस्था की गई। रात्री को ठंड न लगे इस लिए खटिया के नीचे अंगारों से भरा एक बर्तन रखा गया। अब जो कुछ बात करनी है, वह कल करेंगे, कहकर वे सो गए। दिन भर के परिश्रम और स्नेहभरे आतिथ्य के कारण नींद भी बड़ी अच्छी रही। दिन कब खुल गया पता तक न चला। परन्तु आँखे खुली तो उन्होंने क्या चित्र देखा?, जिनके घर आए थे, वे पति-पत्नी दोनों एक लकड़ी को ज़लाकर कर उसके सामने सारी रात बैठे है, उनका एक छोटा सा बेटा अपनी माँ की साड़ी से लिपटा हुआ साथ में सोया है। अतिथि को जब पता चला की मैं जिनके घर रूका हूँ उनके घर एक ही बिस्तर है। मुझे बिस्तर देने के पश्चात सोने के लिए और कोई व्यवस्था न होने के कारण ये दोनों ऐसे ही सारी रात जगते रहें। अतिथि को बड़ा संकोच हुआ। अपने घर आए अतिथि को सारी रात अच्छी नींद लगी। कोई असुविधा नहीं हुई, इस बात के कारण यजमान दम्पति के मुख पर संतोष के भाव थे। यह केवल किसी एक क्षेत्र विशेष का अनुभव नहीं है। सारे भारत वर्ष में किसी भी वनवासी गाँव में जाएँगे तो ऐसे ही स्नेह का अनुभव होगा। ऐसे ही संस्कारों के दर्शन होंगे। घटना केवल अलग-अलग हो सकती है। ऐसे समाज को यदि कोई असंस्कारी कहे तो यह अन्याय नहीं तो और क्या है? बोलनें वाले ने भी जऱा सोच समझ कर बोलना चाहिए। इतना ही कहना पर्याप्त है। कुछ दिन पूर्व मुम्बई में सामाजिक संस्था के कार्यक्रम में एक समाजसेवी व्यक्ति का सम्मान हुआ। '' वनवासी समाज से हम बहुत कुछ सीख सकते है, ऐसा उन्होंने सार्वजनिक रूप में कहा। कार्यक्रम में पधारे सभी सुनने वालों ने इस बात का अनुभव करने कम से कम एक बार वनवासी क्षेत्र में जाना चाहिए और जाने से पूर्व इतनी सावधानी अवश्य रखें की हमारे अहंकार को साथ में न ले जाएँ, स्वच्छ मन से जाने वाले किसी को भी कुछ न कुछ सीखने को अवश्य मिलेगा। यह कहना इसलिए आवश्यक लगता है की वनवासी क्षेत्र में घुमने, व्यापार करने जैसे विविध कारणों से जानेवाले अधिकतम व्यक्ति, जाते ही उपदेश देना शुरू करते है। मैं बहुत कुछ जानता हूंँ, वनवासी को कुछ पता नहीं है। ऐसी ही धारणाएँ देखने को मिलती है। साधारणत: यह सभी गलत धारणाँ है। यदि ऐसा ही रहा तो घुल-मिलने का अनुभव नहीं होगा। कुछ मात्रा में मानसिक दूरी ही देखने को मिलेगी। वास्तव में इसका अधिकतम कारण जाने वाला स्वयं होता है, परन्तु ऐसा ही लगता है की मैं सही था और वनवासी व्यक्ति को कुछ समझ में नहीं आता है। अत: वनवासी बन्धुओं को मिलने से पूर्व भौतिक से अधिक मानसिक पूर्व तैयारियाँ करने की आवश्यकता है। जिसे अच्छा अनुभव होता है, उसने आगे चल कर इस सन्दर्भ में मुखर होने की आवश्यकता है। तभी तो अन्यों की धारणाएँ भी ठीक हो सकती है। वनवासी समाज की मनोवृत्ति जंगली कतई नहीं है। परिवार में स्त्री के प्रति आदर है। वहाँ न तो कोई अनाथ है, न बूढ़े माता-पिता बोझ बने है। इसलिए न तो कहीं अनाथाश्रम है, न बृद्धाश्रम की आवश्यकता है। आत्महत्या करने की मानसिकता भी वनवासी क्षेत्र में दुर्लभ या तो नही के समान है। परिश्रम करना यह स्वभावगत है। इसलिए भीख माँगना, किसी के सामने लाचार होना, उसके रक्त में नहीं है। अपने भारतीय समाज में आज जो पश्चिम की हवा चली है। जिस सांस्कृतिक आक्रमण का हम सामना कर रहे है, उसका जैसे नगरीय समाज शिकार है, वैसे कुछ मात्रा में अपने वनवासी बन्धु भी शिकार हो सकते है। जो वनवासी गाँव, नगरों के पास में है, उन गाँवों में हमें कहीं कहीं मानो कोई अघटित अनुभव हुए, तो वह सम्पूर्ण वनवासी समाज के लिए मान लेना भी गलत धारणा है। बाकी समाज अभिसरण की प्रक्रिया के अभाव में गलत धारणाओं के आधार पर किसी भी व्यक्ति का वनवासी समाज को गवांर, असंस्कारी जैसा कहना गैर जिम्मेवार सिवा और क्या कह सकते है? अपने वनवासी बन्धुओं के जीवन को सही रूप में देखें, उसे सही रूप में समझे और अपनत्व के भाव को मन मे संजोकर अपना अभिमत व्यक्त करे इतनी छोटी सी विनती के साथ विराम।

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