मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जहां अपना मध्यप्रदेश का नारा दे सशक्त प्रदेश का दंभ भर रहे हैं वहीं प्रदेश में मासूमों की मौतों का सिलसिला रूका नहीं है। आज भी 60 प्रतिशत नौनिहाल कुपोषण से जूझते हुए दम तोड़ रहे हैं। यह हम नहीं कह रहे बल्कि आकड़े कह रहे हैं जिसे एनएफएचएस-3 ने प्रदेश के 48 जिलों के सर्वे के बाद सार्वजनिक किया। सर्वे की माने तो प्रदेश में विगत वर्ष 2008-09 में ही लगभग 29,274 बच्चे काल के गाल में समा गए। यह स्थित तब समाने आई है जब सरकार महिला एवं बालविकास के नाम पर प्रतिवर्ष करोड़ो अरबों रूपए खर्च कर रही है। प्रदेश में कुपोषण के कारण होने वाली मौतों का सिलसिला अभी भी थमने का नाम नहीं ले रहा है। बल्कि व्यवस्था चली आ रही खामियों के कारण इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि ही हुई है। कुपोषण के कारण दम तोड़ रहे बच्चों की मौत पर जहां सरकारी नुमाइंदे अपनी जान बचााने के लिए मामले को रफा दफा करने अन्य कारण बताते हैं वही प्रदेश सरकार भी बजाय कोई ठोस कार्रवाई करने बजट में बढ़ोत्तरी कर विपक्ष का मुह बंद कर देती है। बावजूद इसके महिला और बालविकास कुपोषण का दाग धोने में कामयाब नहीं हो सका है। एनएफएचएस-3 (नेशनल हेल्थ फैमिली सर्वे) ने अपने सर्वे में साफ तौर पर कहा है कि बच्चों की मौत के पीछे प्रमुख कारण सही समय पर पूरक पोषण आहार नहीं मिलना हैं। इसके पीछे बच्चे के परिजनों की कमजोर आर्थिक स्थिति भी कम जिम्मेदार नहीं है। प्रदेश के सात जिलों में मौत का यह आंकड़ा तो हजार को भी पार कर गया है। जिसमें सतना सभी जिलों में सिरमौर बनकर उभरा है। जहंा अन्य जिलों की अपेक्षा सबसे ज्यादा 1856 मौतों के मामले सामने आए हैं। इसके बाद सागर 1481, छतरपुर 1242, बैतूल 1190, सीधी 1122 और बालाघाट में 1150 बच्चों की कुपोषण के कारण मौत होना बताया गया है। देश के भविष्य माने जाने वाले मासूम भूख के अभाव में बचपन के साथ जब दुनिया को ही अलविदा कहने के लिए मजबूर हैं तब यह यक्ष प्रश्न का रूप धर लेता है कि क्या इसी तरह हम अपना मध्यप्रदेश बनाएंगे। जहां पोषण आहार के अभाव में हमारी भावी पीढ़ी दम तोड़ रही है। संस्था ने इन मौतों के पीछे मॉ का कच्ची उम्र में विवाह तथा इसके तुरंत बाद गर्भधारण को भी एक कारण मानते हुए संपूर्ण टीकाकरण न होना भी बच्चों की मौत का कारण बताया है जिसके चलते बच्चे असमय दुनिया को अलविदा कह देते हैं। विकास की नवीन अवधारणा के अनुसार किसी भी देश-प्रदेश की विकास स्थिति का मूल्यांकन आजकल मानव विकास सूचकांकों के आधार पर किया जाने लगा है और इसी पैमाने को संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व बैंक जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने भी अपनाया है। इन सूचकांकों में शिशु मृत्युदर, पांच वर्ष के कम आयु के बच्चों की मृत्युदर, मातृ मृत्युदर, जन्म के समय जीवन प्रत्याशा, साक्षरता दर और बच्चों का पोषण स्तर प्रमुख है। मध्यप्रदेश शासन इन कसौटियों पर खरा उतरने के लिए महिलाओं और बच्चों के विकास और कल्याण को सर्वोच्च प्राथमिकता दे रहा है, जो कि प्रदेश की आबादी का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण हिस्सा है। खुद विभागीय मंत्री ने विधानसभा में यह स्वीकार कर चुकी हैं कि मध्यप्रदेश में 39 लाख बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। जबकि मानव संसाधन विकास मंत्रालय, यूनिसेफ और स्वयंसेवी संगठनों की रिपोर्ट के अनुसार शिशु मृत्युदर के मामले में प्रदेश देश भर में अव्वल है, यहां हजार बच्चों में से 74 बच्चे मौत की भेंट चढ़ जाते हैं। विशेषज्ञों की माने तो कुपोषण को बच्चों की मौत का सबसे बड़ा कारण है, जबकि कुपोषण कोई रोग नहीं है। कुपोषण प्रोटीन और दूसरे विटामिनों की कमी के कारण होता है। जब किसी को पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं मिलता है तो वह कुपोषण का शिकार हो जाता है। अब सवाल यह कि जिस प्रदेश में पूरक पोषण आहार, प्रोजेक्ट शक्तिमान, प्रोजेक्ट मुस्कान, बाल संजीवनी अभियान, राष्ट्रीय किशोरी शक्ति योजना, गोद भराई कार्यक्रम, अन्नप्राशन कार्यक्रम, जन्म दिवस कार्यक्रम, किशोरी बालिका दिवस और सांझा चूल्हा जैसी योजनाएं चलाई जा रही है वहां कुपोषण क्यों पनप रहा है? कुपोषण की रोकथाम के लिए महिला एवं बाल विकास विभाग सहित चार अन्य विभाग विभिन्न योजनाओं पर कार्य कर रहे हैं, लेकिन सबसे बड़ी जिम्मेदारी महिला एवं बाल विकास विभाग पर है। विभाग को सरकार द्वारा वर्ष 2009-10 के लिए 15 सौ करोड़ का बजट भी मुहैया कराया गया है, लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद खुली अर्थव्यवस्था, बाजारवाद और नव उपभोक्तावाद की चकाचौंध में कई मूलभूत समस्याएं सरकारी फाइलों में, नेताओं के झूठे वादों में और समाज के बदलते दृष्टिकोण के चलते दबकर रह जाती हैं। गरीबी, बदतर स्वास्थ्य सेवाएं और अशिक्षा के साथ-साथ बच्चों का बढ़ता कुपोषण एक बड़ी समस्या है जिसका निदान कहीं नहीं दिखता। हाल में ही यूनिसेफ द्वारा जारी ताजा रिपोर्ट में जो तथ्य सामने आए हंै, वह भयावह है और सभी के लिए चिंता का सबब होना चाहिए। अत्यधिक शर्म की बात यह है कि विश्व के उन देशों में भारत शुमार है, जहां यह संख्या अत्यधिक है। मध्यप्रदेश देश के राज्यों में सबसे आगे है, जहां पांच वर्ष से कम उम्र के कुपोषित बच्चों की संख्या अधिक है। प्रदेश में लगातार बढ़ते कुपोषण का एक प्रमुख कारण भ्रष्टाचार माना जाता है। यह बात सही है कि प्रदेश की जनसंख्या लगातार बढ़ रही है, फिर भी बच्चों का कुपोषण और उसके फलस्वरूप होने वाली अकाल मौतें किसी भी प्रगतिशील समाज के लिए शर्म की बात है। प्रदेश में कुपोषण को रोकने के लिए बाल संजीवनी अभियान के साथ-साथ करीब दर्जनभर अन्य योजनाएं चलाई जा रही है। इसके नाम पर हर वर्ष करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे है। लेकिन राशि आयकर छापों के बाद विभाग के प्रमुख सचिव के यहां से निकलती है। अब अंदाजा लगाया जा सकता है कि शिवराज सिंह चौहान जिस महिला एवं बाल विकास विभाग की योजनाओं के आधार पर देश के सर्वमान्य नेताओं में शुमार हैं वहीं विभाग इन दिनों लोकशाही और नौकरशाही के चंगुल में फंस कर मासूमों का शोषण करने पर तुला हुआ है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट पर यदि विश्वास किया जाए तो प्रदेश में एक हजार में से 69 बच्चे अपना पांचवां जन्मदिन मनाने से पहले ही दम तोड़ देते हैं। वहीं 44 नवजातों की जन्म के महज कुछ घंटों में ही मृत्यु हो जाती है। इस बात का खुलासा नेशनल हेल्थ फैमिली सर्वे (एनएफएचएस) फेस-3 की मप्र की तैयार रिपोर्ट में हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार मप्र के आदिवासी क्षेत्रों में जन्मे एक हजार बच्चों में 56 बच्चे 28 दिन के भीतर ही दम तोड़ देते हैं। देश की कुल नवजात मृत्युदर में सबसे अधिक मृत्युदर की संख्या म.प्र. से होती है। बाल स्वास्थ्य योजनाओं के क्रियान्वयन नहीं हो पाने के कारण प्रदेश में यह स्थिति है। स्वास्थ्य सूचकांक में सुधार करने के लिए शासन को काफी गंभीरता से सोचना होगा। प्रदेश की शिशु मृत्युदर अन्य राज्यों से अपेक्षाकृत अधिक होने का एक कारण यहां के बच्चों का एनीमिक होना भी है। एक सर्वे के अनुसार प्रदेश के 82.5 प्रतिशत बच्चे एनीमिया से पीडि़त हैं।
सोमवार, मार्च 08, 2010
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