शुक्रवार, मार्च 12, 2010

लोक के इस तंत्र में यह कैसा सिद्धांत

नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत को आज हमारे ही देश की व्यवस्था धता बता रही है। कानून और व्यवस्था के क्रियांवयन का आलम यह है कि न्यायालय जहां लंबित मामलों के बोझ तले दबे हैं वहीं बेगुनाह ता उम्र सजा काटने के लिए मजबूर है। यह बात अलग है कि समय-समय पर मामले पर चिंतन किया जाता है लेकिन छुटकारा पाने की कवायद के अभाव में यह इसके तुरंत बाद दम तोड़ देता है। व्यवस्था पर चिंतन करें तो आलम यह है कि ज्यादातर संगीन मामलों में अपराधी बाहर मौज मस्ती करते हैं और बेगुनाह सजा बतौर पूरी जिंदगी काट देते हैं। पिछले दो महीने में दो खबरे आई। दोनों एक जैसी थी। दोनों निराश करने वाली थी। दोनों हताश करने वाली थी। दोनों दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में न्याय की उपस्थिति पर सवाल उठाती थी। एक मामले में सिर्फ तीन सौ रुपए चोरी का अभियोग झेल रहे एक आदमी को तैतीस साल बाद रिहा किया गया और शर्मनाक बात यह है कि इस आदमी पर मुकदमा कभी शुरू भी नहीं हुआ था। मुकदमा चलता और दोषी पाया जाता तो ज्यादा से ज्यादा दो तीन महीने की सजा होती। तीस साल की उम्र में जेल गया था और 63 साल की उम्र में बाहर आया। जिन बच्चों को आंगन में खेलते छोड़ आया था वे भी अब बूढ़े होने लगे थे।
दूसरे मामले में एक आदमी को अपनी संपत्ति और खेती बचाने के लिए गांव वालों से झगड़ा करने के आरोप में पकड़ा गया था। तब वह सिर्फ बीस साल का था। गांव की पंचायत ने अदालत से शिकायत करने वालों को ले जा कर अपील की कि यह मामला वे आपस में ही सुलझाना चाहते हैं और अदालत से शिकायत वापस लेना चाहते हैं। इस अपील पर भी तारीखे पड़ती रही और बीस साल का यह लड़का साठ साल की उम्र में एक जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद रिहा हुआ। इन दोनों मामलों में अवैध कैद के बदले कोई मुआवजा नहीं दिया गया बल्कि सरकारी वकील की फीस के खर्चे के तौर पर पहले मामले में पच्चीस और दूसरे में बाइस हजार रुपए और वसूल कर लिए गए। ऐसे में अदालत जाने के पहले कोई सौ बार सोचेगा। न्याय के मंदिरों में जो महंत और पुजारी बैठे हैं, उनकी प्राथमिकताएं अलग है। बहुत सारी मजबूरियां भी उनके सामने हैं। एक औसत के अनुसार अपने देश में आठ लाख पचास हजार वकील हैं। छोटी और बड़ी अदालतों को मिला कर तेरह हजार न्यायाधीश और न्यायमूर्ति हैं। 1971 की जनगणना और अदालतोंं में वर्षों से लटके हुए मामलों का हिसाब किया जाए तो भारत जैसे देश में कम से कम पचहत्तर हजार जज होने चाहिए। लेकिन न्याय हमारे लोकतंत्र की प्राथमिकता नहीं है। ऐसे में न्याय की उम्मीद कौन करे और कैसे करे? जनसंख्या के अनुपात के हिसाब से भारत के दस लाख लोगों को न्याय देने के लिए सिर्फ दस जन है। आस्ट्रेलिया में यह संख्या इकतालीस, इंग्लैंड में पचास, कनाडा में पचहत्तर और अमेरिका में एक सौ सात हैं। हम लोग पता नहीं सपनों की किस दुनिया में रहते हैं। कई त्वरित यानी फास्ट ट्रैक अदालतें भी बनाई गई हैं जिनका खर्चा कैदियों को देना पड़ता है। वैसे एक कैदी पर सरकार पचपन रुपए खर्च करती है जिसमें खाना, दवाईयां, कपड़े, अदालत आना जाना और तथाकथित सुरक्षा का खर्चा शामिल हैं। तकनीकी रूप से एक विचाराधीन कैदी पर बीस हजार रुपए सलाना खर्च किए जाते हैं। देश में औसतन एक लाख बीस हजार विचाराधीन कैदी हैं जिन पर सरकार दो सौ चालीस करोड़ रुपए प्रतिवर्ष खर्च करती है। इतने पैसे में कम से कम चौबीस सौ जज नियुक्त किए जा सकते हैं। लेकिन कैदी वोट बैंक नहीं होते इसलिए सरकार को उनकी परवाह नहीं है। त्वरित अदालतों में प्रावधान किया गया है कि रिटायर हो चुके सत्र और अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश इनमें नियुक्त किए जाएंगे और इनका चुनाव उच्च न्यायालय करेगा। सरकार का विचार है कि हर अदालत कम से कम पच्चीस मामले हर महीने निपटाएगी। मगर अदालतों में जिस तरह के भ्रष्टाचार और मनमानी के मामले बार बार सामने आ रहे हैं, दो न्यायमूर्ति महाअभियोग की कतार में खड़े हैं उनमें उम्मीद कम ही नजर आती है। आखिर इन त्वरित अदालतों के फैसलों को भी उच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है और वहां फिर वहीं होगा जो मेरे और मेरे जैसे हजारों लोगों के साथ हो रहा है। तारीख पर तारीख पड़ती रहती है और न्याय के दर्शन नहीं होते।






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