जिस अन्याय और अत्याचार से दलितों पीडि़तों तथ सर्वहारा वर्ग के अधिकार की लड़ाई के लिए बसपा गठन कांशी राम ने किया था वह अब माया के फेर में फस कर अपने मूल उद्देश्य ये कोसों दूर हो गई है। पार्टी के सामने अब न तो दलित महत्वपूर्ण और न ही सवर्ण। बल्कि वह माया के फेर में फस माया के लिए रह गई है। क्योंकि मायावती प्रतिरोध जानती हैं, विरोध जानती हैं, प्रतिशोध जानती हैं और यह सब अपनी गरीब जनता की कीमत पर करना जानती है। मगर क्या आप जानते हैं कि कुमारी बहन मायावती को प्रतिरोध, विरोध और प्रतिशोध से ज्यादा निरोध की जरूरत है। उन बयानों, उन कर्मों और उन फैसलों पर निरोध जो सिर्फ उनके होते हैं और जिनकी लाभ हानि के नतीजे जनता को भुगतने पड़ते हैं। मायावती ने बहुजन समाज पार्टी की रजत जयंती के समारोह को ऐतिहासिक बना दिया। उनके चारणों का कहना है कि इस रैली मे पच्चीस लाख लोग आए थे। लगभग इतनी ही आबादी लखनऊ शहर की होगी। वैसे रमा बाई अंबेडकर पार्क में जहां यह रैली हुई, ज्यादा से ज्यादा पांच लाख लोग आ सकते हैं और वह भी छोटी संख्या नहीं होती। मगर अपना झगड़ा इस बात पर नहीं हैं कि बहन जी के बुलाने पर पांच लाख आए या पच्चीस लाख आए।झगड़ा इस बात पर है कि यह रैली जिस शैली में बुलाई गई थी वह न सिर्फ आपत्तिजनक बल्कि शर्मनाक है। प्रतापगढ़ में भगदड़ में सत्तर से ज्यादा लोग मारे गए और माया मेम साहब ने मुआवजा देने से यह इंकार कर दिया कि सरकार गरीब है। इसी सरकार ने लगभग ढाई हजार करोड़ रुपए सिर्फ मायावती और हाथियों की मूर्तियां लगाने पर खर्च कर दिए। देश की सर्वोच्च अदालत ने हथिनी और हाथी की इन मूर्तियों पर सवाल किया है और चूकि सरकार के पास कोई साफ उत्तर नहीं हैं इसलिए जवाब देने के लिए वक्त मांगा गया है। जिस समय मायावती करोड़ों रुपए के हजार के नोटों की माला पहन रही थी, और अपने साथियों के बलिदान पर निहाल हुई जा रही थी, उस समय बरेली में सांप्रदायिक आग सुलग रही थी। मायावती को वहां जाने की फुरसत नहीं थी। मायावती भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी शो मैंन या शो वूमैन बन गई है जिन्हें अपने छोटे से छोटे अवसर को महिमा मंडित करवाने में एक पल नहीं लगता। उत्तर प्रदेश में इस समय सरकार नहीं, दरबार चल रहा है। राज्य सचिवालय की पांचवी मंजिल पर पाला बदल कर बैठे अफसर मायावती के नाम पर फैसले करते हैं और यह फैसले तुगलक के फरमान से कम नहीं होते। जब इन पर सवाल किया जाता है तो महारानी मायावती तुरंत दलित कन्या के अवतार में आ जाती है और कहती है कि देखो, कैसे हमें मनुवादी सता रहे हैं। वैसे इस बार अगर वे पूरा बहुमत पा कर सत्ता में बैठी है तो इसमें कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और भाजपा की नालायकी के अलावा मनुवाद और पिछड़ो का वह समीकरण हैं जिसे सतीश मिश्रा ने ईजाद किया था। मगर पार्टी की रजत जयंती रैली में सतीश मिश्रा कहीं नजर नहीं आए। उन्हें तो अब पार्टी की ब्राह्मण भाई चारा समिति से भी निकाल दिया गया है और बहन जी ने मंच से ऐलान किया कि सतीश मिश्रा वकील हैं और उन्हें सिर्फ कानूनी मामले देखने चाहिए। मायावती ने खुद भी कुछ कानूनी सवाल उठाए हैं। उन्होंने पूछा है कि देश के किस कानून में लिखा है कि मुख्यमंत्री और दूसरे महापुरुषों की प्रतिमाएं नहीं लगाई जा सकती। उन्होंने बहुत उदार भाव से कहा कि राज्य के बजट का सिर्फ एक प्रतिशत इन मूर्तियों को बनाने में लगाया गया है। जहां तक हाथी का सवाल है, उन्होंने कहा कि हाथी तो भारतीय संस्कृति का हिस्सा है और संसद से ले कर बहुत सारे सरकारी भवनोंं में हाथी की मूर्तियां लगी है। गनीमत है कि मायावती का चुनाव चिन्ह बंदर नहीं हैं वरना वे पूरे उत्तर प्रदेश को वानर प्रतिभाओं से भर देती और फिर कहती कि आखिर बजरंग बली के मंदिर भी तो पूरे देश में है।मायावती ने निर्लज्जता को अपनी राजनीति की ललित कला बना लिया है। वे पहले फैसले करती है और फिर उनके तर्क खोजती है। महिला आरक्षण के वर्तमान स्वरूप पर उन्हें ऐतराज है मगर राज्यसभा में उसके खिलाफ मतदान उन्होंने नहीं करवाया। क्या पता कब कांग्रेस काम आ जाए। मायावती ने जब अटल बिहारी वाजपेयी की तेरह महीने की सरकार को समर्थन देने की घोषणा के बाद उसके खिलाफ मतदान करवाया था तो पत्रकारों से कहा था कि मुझे यह कहने में कोई ऐतराज नहीं कि दलितों के हित में मैं हर अवसर का अपने हिसाब से इस्तेमाल करूंगी। अवसरवादी होने को उन्होंने दलित कल्याण से जोड़ दिया था। आज भी माया मैम साहब इसी सिध्दांत पर कायम है। मायावती सिर्फ नाम की दलित हैं। सामंतवादी सारे तौर तरीके उन्हें पसंद है। उनके पास उपहार में मिले जितने मुकुट हैं, उतने शायद किसी और नेता के पास नहीं होंगे। मंच या किसी भी बैठक में वे सिंहासन पर बैठती है। गाजियाबाद जिले के एक गांव की मूल निवासी और दिल्ली की एक मलिन कही जाने वाली बस्ती में बड़ी हुई मायावती ने उपहार में ही चाणक्यपुरी जैसे अभिजात इलाके में कोठी बनवा ली और उसे दलितों की उपलब्धि करार दे दिया। सिर्फ उपहारों पर करोड़ों का आयकर देने वाली मायावती को जन प्रतिनिधित्व कानून की वह धारा शायद सतीश मिश्रा बता दे जिसमें मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों द्वारा लिए गए उपहार रिश्वत माने जाते है। मगर मायावती को उपहार देने के लिए चंदा वसूली में मनोज गुप्ता नाम के एक साफ सुथरे इंजीनियर का कत्ल कर के उसकी लाश जालौन के थाने में फेंक दी जाती है और जब बहुत बवाल मचता है तो विधायक को गिरफ्तार किया जाता है। मायावती कहती है कि वे किसी से उपहार मांगती नहीं। रिश्वत लेते जितने लोग पकड़े जाते हैं वे भी यही कहते हैं कि उन्होंने मांगा नहीं था मगर जन कल्याण या पार्टी कोष के लिए कोई अगर पैसा दे गया हो तो इसमें उनका क्या कसूर?मायावती की जिद और इच्छाशक्ति की तारीफ करनी होगी जो उन्होंने सफलता का इतना लंबा सफर पूरा किया। इस सफर में जो महल उनके बने हैं उनकी नींव में कांशीराम के विचार और व्यक्तित्व दोनों दफन है। आपको अगर जनादेश मिला है तो मुबारक हो मगर बहन जी जनता अगर माथे पर बिठाती है तो जूते से कुचलना भी जानती है। इंदिरा गांधी से ज्यादा ताकतवर मायावती आज भी नहीं हैं और 1977 में देश की जनता ने इंदिरा जी को भी एक बार सबक सिखा दिया था कि हमसे बच कर रहना। मायावती को सिर्फ संयम की जरूरत नहीं है। संयम की सीमा से वे कब की बाहर निकल चुकी है। उन्हें दलित तानाशाह बनने से रोकने के लिए एक सामाजिक निषेध और लोकतंत्र को खंडित करने के विरूद्व प्रजा का निरोध चाहिए। अगर इस निरोध से भी वे नहीं मानी तो फिर जनता के प्रतिशोध का सामना करना पड़ेगा और यह हम कई बार देख चुके हैं कि जनता जब प्रतिशोध लेती है तो बचाने वाला कोई नहीं मिलता।
मंगलवार, मार्च 16, 2010
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