बुधवार, मार्च 31, 2010

चाणक्य के गढ़ में नहीं मिल रहे किलेदार

बीसवीं सदी में देश प्रदेश की राजनीति में धूमकेतु की तरह उभरे कांग्रेस के चाणक्य कुंवर अर्जुन सिंह की स्थिति उनके ही चेलों ने बहुत जर्जर करके रख दी है। कल तक जिस राजनैतिक बियावन में अर्जुन सिंह ने गुरू द्रोणाचार्य की भूमिका में आकर अपने अर्जुन रूपी शिष्यों को तलवार चलाना सिखाया उन्ही अर्जुनों ने कुंवर साहेब के आसक्त होते ही तलवारें उनके सीने पर तान दी। कुंवर अर्जुन सिंह के लिए सबसे बड़ा झटका तब लगा जब इस बार उन्हें केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल में शामिल नहीं किया गया। अब कुंवर साहेब के सरकारी आवास के छिनने की भी बारी आने वाली है। इस साल मई में उनका राज्यसभा का कार्यकाल पूरा होने वाला है। कुंवर साहेब को दुबारा राज्य सभा में नहीं भेजा जाएगा इस तरह के साफ संकेत कांग्रेस के सत्ता और शक्ति के शीर्ष केन्द्र सोनिया गांधी के आवास दस जनपथ ने दिए हैं। सूत्रों का कहना है कि अर्जुन सिंह के शिष्य दिग्विजय सिंह को अर्जुन सिंह के स्थानापन्न कराने की योजना बनाई जा रही है। यद्यपि दिग्गी राजा ने दस साल तक कोई चुनाव न लडऩे का कौल लिया है, पर अगर आलाकमान का दबाव होगा तो वे राजी हो सकते हैं। इसके अलावा मध्य प्रदेश में कांग्रेसाध्यक्ष सुरेश पचौरी को पांचवीं मर्तबा पिछले दरवाजे अर्थात राज्य सभा से भेजा जा सकता है, इतना ही नहीं सूबे की नेता प्रतिपक्ष जमुना देवी का नाम भी राज्यसभा के लिए लिया जा रहा है। वैसे केन्द्र में बैठे प्रतिरक्षा मन्त्री ए.के.अंटोनी, उद्योग मन्त्री आनन्द शर्मा, खेल मन्त्री एम.एस.गिल, वन एवं पर्यावरण मन्त्री जयराम रमेश और सबसे खराब परफार्मेंस वालीं अंबिका सोनी भी इस साल राज्यसभा से रिटायर हो रहीं हैं, अत: उनके पुनर्वास के लिए अर्जुन सिंह के स्थान पर इनमें से किसी एक को पुन: राज्यसभा में भेजा जा सकता है। जिला पंचायत चुनावों में कांग्रेस को कोई खास सफलता नहीं मिली, बावजूद इसके सतना और रीवा जिला पंचायत में कांग्रेस की हार के खास मायने हैं। सतना में जिला पंचायत के चुनाव में कांग्रेस की हार इस मायने में महत्वपूर्ण है कि 26 में से 10 वार्डों में कांग्रेस के उम्मीदवार होने के बावजूद प्रदेश कांग्रेस ने इस तरफ झांककर देखना भी मुनासिब नहीं समझा। अर्जुन सिंह के साले और प्रदेश के पूर्वमंत्री अजय सिंह के मामा राजेंद्र सिंह के सामने प्रदेश कांग्रेस ने कोई दखल देना उचित नहीं समझा। लिहाजा, बहुमत में होते हुए कांग्रेस यहां निपट गई और भाजपा ने केवल चार वार्डों में जीतने के बाद इस जिला पंचायत पर कब्जा कर लिया। सतना जिला पंचायत में 26 वार्ड हैं। गैर दलीय आधार पर हुए इस चुनाव में भाजपा और बसपा ने पार्टी में आम सहमति कायम कर अपने अधिकृत उम्मीदवारों के नाम घोषित किए। कांग्रेस ने ऐसी कोई कोशिश संगठन के स्तर पर नहीं की। नतीजा फिर भी कांग्रेस के पक्ष में आया। कांग्रेस समर्थित दस उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की। भाजपा ने चार वार्ड जीते, बसपा ने सात में जीत दर्ज की, पांच वार्डों में अन्य उम्मीदवार जीते। जाहिर है, कांग्रेस के लिए जिला पंचायत पर कब्जा करना आसान था। कांग्रेस के नाम पर यहां कोशिश करने के लिए केवल राजेंद्र सिंह थे। उन्होंने अपने पुत्र विक्रमादित्य सिंह को पार्टी का उम्मीदवार घोषित कर दिया। बाकायदा उन्होंने अपने पुत्र के लिए कोशिशें शुरू कर दीं बाकी जीते सदस्यों को विश्वास में लिए बिना। दावेदारों में नागौद के पूर्व विधायक रामप्रताप सिंह के पुत्र गगनेंद्र सिंह और पिछली बार जनपद अध्यक्ष रह चुके कमलेंद्र सिंह कमलू भी शामिल थे। कांग्रेस संगठन के तौर पर यहां बिन माई-बाप की है। पार्टी के जिलाध्यक्ष रहे राजाराम त्रिपाठी पिछली बार लोकसभा का चुनाव बागी होकर समाजवादी पार्टी से लड़ चुके हैं। तब से सतना में नए कांग्रेसाध्यक्ष की नियुक्ति नहीं हुई है। प्रदेश कांग्रेस ने न तो किसी को सतना की जवाबदारी सौंपी, न किसी ने प्रदेश कांग्रेस को पूछा। राजेंद्र सिंह ने जब अपने पुत्र विक्रमादित्य सिंह को एकतरफा उम्मीदवार घोषित कर दिया तो दूसरे दावेदारों में से एक गगनेंद्र सिंह भाजपा में शामिल हो गए। भाजपा ने गगनेंद्र सिंह को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया और कमलेंद्र सिंह कमलू भी मैदान में खड़े हो गए तो बसपा ने अपने प्रत्याशी को हटाकर कमलेंद्र का समर्थन कर दिया। जिला पंचायत अध्यक्ष की दौड़ में थे- कुल मिलाकर तीनों ही कांग्रेसी। राजेंद्र सिंह और भाजपा दोनों ने जाहिर है, खरीद- फरोख्त का सहारा लिया। इस मुकाबले में राजेंद्र सिंह के पुत्र को एक वोट से हार का सामना करना पड़ा। विक्रमादित्य सिंह को दस ही वोट मिले। गगनेंद्र को 11 वोट मिले। पांच वोट कमलेंद्र को मिले। जाहिर है, भाजपा ने कांग्रेस और बसपा दोनों के वोटों में सेंध लगाने में कामयाबी हासिल की। कांग्रेस के लिए दुर्भाग्यजनक पहलू केवल इतना रहा कि प्रदेश नेतृत्व ने सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ दिया। न कोई यहां सामंजस्य बैठाने आया, न किसी को इसके लिए प्रदेश कांग्रेस ने अधिकृत किया। राजेंद्र सिंह का विरोध करने वालों का तर्क था कि वे खुद तीन बार लोकसभा चुनाव हार चुके है। दो बार विधानसभा चुनाव हार गए। उनके पिता शिवमोहन सिंह खुद चुनाव हारे जीते हैं, तो क्या कांग्रेस में किसी और को मौका मिलेगा या नहीं। यहां उल्लेखनीय है कि पिछली बार कमलेंद्र सिंह कमलू ने जनपद सदस्य के तौर पर पूरे पांच साल सरकार से लड़ाई लड़कर खुद को बनाए रखा था। अजय सिंह समर्थक कमलू के लिए अजय सिंह का भी कहना था कि पार्टी में समन्वय बनाकर आमराय से उम्मीदवार तय किया जाना चाहिए था। बावजूद इसके प्रदेश कांग्रेस का कोई नेता आगे नहीं आया। नतीजे में आज कांगे्रस विंध्य के इस बड़े इलाके में कहीं नजर नहीं आती। रीवा और सतना से न तो पार्टी का कोई विधायक है, न नगरपालिका या नगर निगम में उसका कब्जा। अपवाद स्वरूप जहां हैं भी उनकी उपस्थित के खास मायने नहीं माने जाते। केवल जिले की एक जनपद पर कांग्रेस का कब्जा है। इस तरह कहा जा कसता है कि अर्जुन सिंह के गढ़ कहे जाने वाले विंध्यक्षेत्र की हालत भी कांगे्रस में फिलहाल हाशिए पर ही है।

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