भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जिस अनिवार्य शिक्षा के कानूनी अधिकार 2009 को आज लागू कर अपनी सरकार और उसके मंत्री की पीठ थपथपा रहे हैं उसका मौजूदा स्वरूप देश के बुद्धिजीवियों और शिक्षाविदें को रास नहीं आ रहा है। कानून में व्याप्त विसंगतियों के कारण जहां वह इस कानून को शासकीय संस्थानों को नष्ट और विदेशी और निजी शैक्षिक संस्थानों को पोषित करने वाला बता रहे हैं वहीं इसे वह देश की 43 करोड़ गरीब जनता को सरकार द्वारा मूर्ख बनाए जाना मान रहे हैं। इसके चलते पहली अप्रैल से लागू हुआ शिक्षा अधिकार कानून सवालों के घेरे में आ गया है। अपना विरोध दर्ज कराते हुए शिक्षा अधिकार मंच ने इस कानून की धोखाधड़ी और शिक्षा के व्यवसायीकरण के खिलाफ धरना और आम सभा कर कानून की प्रतियां जलाकर अपना विरोध भी दर्ज कराया है। शिक्षा अधिकार कानून को धोखाधड़ी बताते हुए शिक्षा के व्यावसायीकरण के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व कर रहे डा. अनिल सद्गोपाल का मानते हंै कि इस कानून से संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर की उस मंशा को ठेस पहुंची है जिसके तहत उन्होंने शिक्षा के अधिकार को संविधान में मौलिक अधिकार के रूप में समावेश किया था। लगभग आठ वर्ष पूर्व एक अप्रैल 2002 से लागू सर्वशिक्षा अभियान की असफलता से सबक न सीखने वाली सरकार एक और नए कानून को थोप कर अपने मकसद को साधने में लगी है। जिसके तहत वह मुफ्त और अनिवार्य समतामूलक शिक्षा की अपनी संवैधानिक जवाबदेही से पल्ला झाड़ लेगी तो दूसरी ओर वह सार्वजनिक संसाधनों के जरिए सरकारी स्कूली शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण की रफ्तार को तेज करने का प्रयास कर रही है। इस कानून की धारा -3 में जहां सरकार को बच्चों की ट्यूशन फीस के अलावा अन्य प्रकार के शुल्क लेने के लिए अधिकृत किया गया है वहीं धारा-8 उपबंध-क, के तहत निजी स्कूलों में मजबूरन जाने वाले मध्यम वर्ग के बच्चों से मुफ्त शिक्षा का भी अधिकार छीन लेती है। वही इस कानून में 0 से 6 वर्ष और 14 से 18 वर्ष के बालकों और किशोरों को अनिवार्य शिक्षा देने का कोई उल्लेख नहीं है। इसके अलावा सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की नियुक्तियां कक्षाओं की संख्या के आधार पर न कर दर्ज संख्या के आधार पर होना, कक्षा आठवीं तक के छात्र-छात्राओं को फेल न करना, नियमित शिक्षकों की जगह पैरा शिक्षकों की नियुक्ति, गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की बजाय अनिवार्य शिक्षा होना, शालाओं की शिक्षण अवधि बढ़ाने के बाद शिक्षकों को वन स्टेप अप वेतनमान से वंचित रखना, सरकारी स्कूलों के कार्यक्षेत्र में स्थानीय शासन की संस्थाओं की दखलंदाजी वे बिंदू है जिनमें संशोधन नहीं हुआ तो शुरुआती दौर में शहरी क्षेत्र के सरकारी स्कूलों पर बुरा असर पड़ेगा लगेगा। अशासकीय विद्यालय भी नहीं संतुष्ट: इतना ही नहीं निजी शिक्षण संस्थाओं ने भी मानव संसाधन विकास मंत्री को पत्र लिखकर अपनी आपत्ति दर्ज कराई है। जिसके तहत केपीटेशन शुल्क का अर्थ स्पष्टï करने, पूर्व से संचालित विद्यालयों की मान्यता एक से चार कक्षा तक मान्य करने, प्रवेश हेतु कक्षा पहली में जन्म प्रमाणपत्र आवश्यक हो फिर अन्य कक्षाओं के लिए स्थानांतरण प्रमाणपत्र अनिवार्य रखने, प्राथमिक एवं पूर्व माध्यमिक शिक्षा में पास, फेल की व्यवस्था यथावत रखने, विद्यालय पर दंडात्मक धाराएं एवं आर्थिक दंड वाले नियम हटाने तथा खेल मैदान की अनिवार्यता समाप्त करने का मुद्दा उठाया है। निजी विद्यालयों में 25 फीसदी गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने के नियम पर एनजीओ को दिए जाने वाले अनुदान को भी तर्क संगत नहीं माना गया है।
क्या है शिक्षा का अधिकार कानून एक अप्रैल से देश के 6-14 आयु वर्ग के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देना कानूनी रुप से सरकार के लिए जरुरी हो जाएगा। यह सबकुछ संभव हो रहा है बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार एक्ट-2009 की वजह से। केंद्र सरकार ने इस बिल पर पिछले साल ही अपनी मुहर लगा दी थी और तय किया था कि एक अप्रैल 2010 को इसे पूरे देश में लागू कर दिया जाएगा।क्या है खासियत- इस कानून की सबसे बड़ी खासियत यह है कि अब सरकार के लिए उन बच्चों को शिक्षित करना जरूरी हो जाएगा जो 6-14 के आयु वर्ग में आते हैं।- यह कानून स्कूलों में शिक्षक और छात्रों के अनुपात को सुधारने की बात करता है। मसलन अभी कई स्कूलों में सौ-सौ बच्चों पर एक ही शिक्षक हैं। लेकिन इस कानून में प्रावधन है कि एक शिक्षक पर 40 से अधिक छात्र नहीं होंगे। हालांकि यह कोठारी आयोग की अनुशंसा 1:30 से कम है।- इस कानून के अनुसार राज्य सरकारों को बच्चों की आवश्यकता का ध्यान रखते हुए लाइब्रेरी, क्लासरुम, खेल का मैदान और अन्य जरूरी चीज उपलब्ध कराना होगा।- 15 लाख नए शिक्षकों की भर्ती, जिसे एक अक्टूबर तक ट्रेंड करना जरूरी है।- स्कूल में प्रवेश के लिए मैनेजमेंट बर्थ सर्टिफिकेट फिर ट्रासंफर सर्टिफिकेट आधार पर प्रवेश से मना नहीं कर सकता।- सत्र के दौरान कभी भी प्रवेश- निजी स्कूल में 25 फीसदी सीट गरीब बच्चों के लिए
क्या है खामियां- इस कानून की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें 0-6 आयुवर्ग और 14-18 के आयुवर्ग के बीच के बच्चों की बात नहीं कई गई है। जबकि संविधान के अनुछेच्द 45 में साफ शब्दों में कहा गया है कि संविधान के लागू होने के दस साल के अंदर सरकार 0-14 वर्ग के आयुवर्ग के बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा देगी। हालांकि यह आज तक नहीं हो पाया।- अंतराष्ट्रीय बाल अधिकार समझौते के अनुसार 18 साल तक की उम्र तक के बच्चों को बच्चा माना गया है। जिसे 142 देशों ने स्वीकार किया है। भारत भी उनमें से एक है। ऐसे में 14-18 आयुवर्ग के बच्चों को शिक्षा की बात इस कानून में नहीं कई गई है।- इस कानून को केंद्र सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि में से एक बताया जा रहा है। जबकि संविधान में पहले से ही यह प्रावधान है और 2002 में हुए 86वें संशोधन में भी शिक्षा के अधिकार की बात कई गई थी। लेकिन सरकार अब जाकर यह कानून ला रही है। इन आठ सालों में बच्चों की पूरी एक पीढ़ी इस अधिकार से बाहर हो गई।
इतिहास
संविधान के अनुछेच्द 45 में 0-14 उम्र के बच्चों को शिक्षा देने की बात कही गई। 2002 में 86 वें संशोधन में शिक्षा के अधिकार की बात कही गई। 2009 में शिक्षा का अधिकार बिल पास हो सका, एक अप्रैल 2010 में इसे पूरे देश में लागू कर दिया जाएगा।
मैं इस कानून के बारे में पूरी तरह से कंफ्यूज हूं। इसकी प्रतियां कैसे प्राप्त की जा सकती हैं?
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