शनिवार, अप्रैल 10, 2010

लोकतंत्र में सत्ता संघर्ष है नक्सलवाद

आज के नक्सलवाद को छद्म लोकतंत्र के खिलाफ कुछ लोगों का तथाकथित सत्ता संघर्ष कहा जाए तो इसमें कोई अतिस्योक्ति नहीं होगी। फिर चाहे सरकारें इसे दबाने के लिए कितने ही जतन क्यों न कर लें। स्वतंत्रता के समय भारत के राजनेताओं के एक गुट ने गांधी की हत्या की तो दूसरे गुट ने गांधी के नीतियों की हत्या की। गांधी की नीतियों की हत्या करनेवालों ने मिलजुलकर समाज पर एक ऐसा संविधान थोप दिया जिसमें लोकतंत्र के नाम पर अनंतकाल तक समाज को गुलाम बनाकर रखने के सभी उपकरण मौजूद थे। वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था इसी लोकतंत्र को किसी भी तरह से बचाकर रखना चाहती है जबकि नक्सलवादी इस व्यवस्था को उखाड़कर अपनी व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं।
नक्सलवाद की समस्या को मैंने लंबे समय तक संपूर्णता में देखा और समझा है। मेरा मानना है कि वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था के दलाल इसे किसी भी तरह से कमजोर नहीं होने देना चाहते क्योंकि वे इस व्यवस्था से लाभ उठा रहे हैं। ऐसे अतिवादी दलाल आपको यह कहते हुए मिल जाएंगे कि भारत का संविधान और यहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था दुनिया की सबसे अच्छी व्यवस्था है। संपन्नता, सुविधा और अधिकारों की इस संवैधानिक लूट का स्वामित्व अपने हाथ में लेने का हिंसक प्रयास ही नक्सलवाद है. विभिन्न राजनीतिक दल लोकतांत्र की दुहाई देकर संवैधानिक तरीके से इस लूट के स्वामित्व पर कब्जा बनाये रखना चाहते हैं तो दूसरी ओर अनेक दुस्साहसी इस प्रयास में स्वयं को असमर्थ पाकर लोकतंत्र संविधान आदि का विरोध करके इस स्वामित्व को प्राप्त करना चाहते हैं और अपनी सफलता के लिए हिंसा को ही सबसे अच्छा मार्ग मानते हैं।
आज वर्तमान लोकतांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था नागरिकों से टैक्स के रूप में धन वसूलकर उस टैक्स का कुछ भाग सेना, पुलिस पर खर्च करती है और शेष को अपने दलालों पर, अपनी व्यवस्था और कुछ बचा हुआ धन नागरिकों की सुविधा पर खर्च करती है। नक्सलवादी भी ठीक उसी रास्ते पर चलकर टैक्स के रूप में समाज से बेतहाशा धन वसूल करते हैं और उस धन से अपनी सेना तैयार करते हैं, मानवाधिकार और साहित्यकार रूपी दलाल पैदा करते हैं तथा कुछ धन सामाजिक विकास पर भी लगाते हैं। दोनों का उद्येश्य, लक्ष्य और मार्ग एक ही है। दोनों ही समाज को लंबे समय तक गुलाम बनाये रखना चाहते हैं और इसके लिए दोनों ही जनहित का ढोंग रचते हैं। गंभीरतापूर्वक विचार करिए कि नक्सलवादियों का समर्थन करनेवालों का धनखर्च कहां से आता है? और हद तो यह हो गयी है कि अब नक्सलवाद के ऐसे समर्थक गांधी के नाम का भी उपयोग करने लगे हैं. इनका न तो गांधी से कोई संपर्क है और न ही ये असल में मानवाधिकार के रक्षक हैं। ये सिर्फ नक्सलवादी हिंसा को समर्थन देने वाले व्यवसायी हैं जो अब अपनी दुकानदारी चलाने के लिए गांधी और गांधीवाद का भी सहारा लेने लगे हैं।
लेकिन इन दोनों के बीच चल रहे सत्ता संघर्ष में हम शिकार हो रहे हैं। दोनो ही ओर से जो गोला बारूद और बंदूक खरीदी जा रही है उसका धन कहीं न कहीं हमसे वसूल किया जाता है। कहते हैं कि दोनों पक्ष हमारे लिए संघर्ष कर रहे हैं लेकिन दोनों ही पक्षों ने कभी हम नागरिकों से सहमति लेने की जहमत नहीं उठाई। दोनों ही पक्ष अपने गुटों की सहमति को नागरिकों की सहमति घोषित कर देते हैं. बीते दिसंबर के दौरान मैंने छत्तीसगढ़ के 113 गांवों की यात्रा की थी। गांवों की यात्रा के दौरान साफ नजर आया कि गांव की जनता पर दोहरी मार है. एक ओर वे पंचायती व्यवस्था के शिकार हो रहे हैं तो दूसरी ओर नक्सलवाद के नाम पर अज्ञात तानाशाही का भय सता रहा है। जनता क्या करे उसे समझ में नहीं आ रहा है। आप गांवों में जाएं तो पायेंगे कि वहां युद्ध की तैयारियां हो रही हैं. कोई इस ओर से लडऩे के लिए तैयार हो रहा है तो कोई उस ओर से। इस विकराल स्थिति में न तो अकेले नक्सलवाद को दोषी ठहराया जा सकता है और न ही इस राजनीतिक व्यवस्था की प्रशंसा की जा सकती है। दोनों ही ओर से कोई भी इस बात का प्रयास नहीं कर रहा है कि समाज को उसके भरोसे छोड़ दिया जाए जैसा कि उसके साथ होना चाहिए। समाज अपनी व्यवस्था खुद बनाए। लेकिन दुर्भाग्य से दोनों ही पक्ष इस बात के लिए तैयार नहीं है।
इतना तो साफ है कि सरकारी नीतियां ही नहीं सरकार की नीयत भी गलत है। विकास की बात तो महज एक ढोंग है। यदि विकास के नाम पर खर्च किये जाने वाले कमीशन को ही बंद कर दिया जाए तो विकास की सारी पोल खुल जाएगी। विकास के नाम पर जो धन खर्च किया जा रहा है उससे दोनों पक्षों के दलाल लाभान्वित हो रहे हैं। इसीलिए ये लोग विकास का रोना रोते हैं। नक्सलवादी विकास की मांग भी करते हैं विकास में बाधा भी पहुंचाते हैं। दूसरी ओर सरकारी लोग हैं जो विकास के नाम पर बंदरबाट में लगे हुए हैं। इसलिए नक्सलवाद की समस्या का समाधान न तो विकास है और न ही बंदूक। नक्सलवाद की समस्या का एक ही समाधान है स्थानीय स्वायत्तता जिसका संशोधित तरीका है ग्रामसभा का सशक्तीकरण. यह सशक्तीकरण न तो कानून से होगा और न ही हिंसा से। यह सशक्तिकरण होगा ग्राम सभा का मनोबल बढ़ाने से। छत्तीसगढ़ के एक गांव रामचन्द्रपुर ने यह प्रयोग किया है और वहां अच्छी खासी सफलता दिख रही है। एक वक्त था जब वहां के लोग भी सशस्त्र संघर्ष के लिए तैयार हो रहे थे लेकिन आज वे ग्राम सभा के सशक्तिकरण के माध्यम से अपनी समस्याओं का समाधान कर रहे हैं। नक्सलवाद के नाम पर हो रहे युद्ध से बचने का यही एकमात्र रास्ता है।

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